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Sunday, November 15, 2015

भडोच का गुर्जर राज्य

डा. सुशील भाटी

(Key words - Bhroach, Gurjara, Bhinmal, Maitrak, Vallabhi, Chapa, Chalukya)

आधुनिक गुजरात राज्य का नाम गुर्जर जाति के नाम पर पड़ा हैं| गुजरात शब्द की उत्पत्ति गुर्जरात्रा शब्द से हुई हैं जिसका अर्थ हैं- वह (भूमि) जोकि गुर्जरों के नियंत्रण में हैं| गुजरात से पहले यह क्षेत्र लाट, सौराष्ट्र और काठियावाड के नाम से जाना जाता था|

सबसे पहले गुर्जर जाति ने छठी शताब्दी के अंत में आधुनिक गुजरात के दक्षिणी इलाके में एक राज्य की स्थापना की| हेन सांग (629-647 ई.) ने इस राज्य का नाम भडोच बताया हैं| भडोच के गुर्जरों के विषय में हमें दक्षिणी गुजरात से प्राप्त नौ तत्कालीन ताम्रपत्रों से चलता हैं| इन ताम्रपत्रो में उन्होंने खुद को गुर्जर नृपति वंश का होना बताया हैं| इस राज्य का केन्द्र नर्मदा और माही नदी के बीच स्थित आधुनिक भडोच जिला था, हालाकि अपने उत्कर्ष काल में यह राज्य उत्तर में खेडा जिले तक तथा दक्षिण में ताप्ती नदी तक फैला था| गौरी शंकर ओझा के अनुसार इस राज्य में भडोच जिला, सूरत जिले के ओरपाड चोरासी और बारदोली तालुक्के, आस-पास के बडोदा के इलाके, रेवा कांठा और सचीन के इलाके होने चाहिए| इस राज्य की राजधानी नंदीपुरी थी| भडोच की पूर्वी दरवाज़े के दो मील उत्तर में नंदिपुरी नामक किला हैं, जिसकी पहचान डा. बुहलर ने ताम्रपत्रो में अंकित नंदिपुरी के रूप में की हैं| कुछ इतिहासकार भडोच से 36 मील दूर, नर्मदा के काठे में स्थित, नाडोर को नंदिपुरी मानते हैं|

उस समय भारत के पश्चिमी तट पर भडोच सबसे प्रमुख बंदरगाह और व्यपारिक केन्द्र था| भडोच बंदरगाह से अरब और यूरोपीय राज्यों से व्यापार किया जाता था|
Map showing Bhroach 

भडोच के गुर्जरों का कालक्रम निम्नवत हैं
दद्दा I (580 ई.)
जयभट I (605 ई.)
दद्दा II  (633 ई.)
जयभट II (655 ई.)
दद्दा III (680 ई.)
जयभट III (706-734 ई.)

यह पता नहीं चल पाया हैं कि भडोच के गुर्जर किस गोत्र (क्लैन) के थे| संभवतः आरम्भ में वे भीनमाल के चप (चपराना) गुर्जर राजाओ के सामंत थे| यह भी सम्भव हैं कि वे भीनमाल के चप वंशीय गुर्जरों की शाखा हो| भीनमाल के गुर्जरों कि तरह भडोच के गुर्जर भी सूर्य के उपासक थे|

भारत में हूण साम्राज्य (490-542 ई.) के पतन के तुरंत बाद आधुनिक राजस्थान में एक गुर्जर राज्य के अस्तित्व में होने के प्रमाण मिलते हैं|, इस गुर्जर राज्य की राजधानी भीनमाल थी| तत्कालीन ग्रंथो में राजस्थान को उस समय गुर्जर देश कहा गया हैं| हेन सांग (629-647 ई.) ने भी अपने ग्रन्थ सी यू की में गुर्जर क्यू-ची-लो राज्य को पश्चिमी भारत का दूसरा सबसे बड़ा राज्य बताया हैं| प्राचीन भारत के प्रख्यात गणितज्ञ ब्रह्मगुप्त की पुस्तक ब्रह्मस्फुत सिद्धांत के अनुसार 628 ई. में श्री चप (चपराना/चावडा) वंश का व्याघ्रमुख नामक राजा भीनमाल में शासन कर रहा था| गुर्जर देश से दक्षिण-पूर्व में भडोच की तरफ गुर्जरों के विस्तार का एक कारण सभवतः विदेशी व्यापार मार्ग पर कब्ज़ा करना था|

बाद में भडोच के गुर्जर संभवतः वल्लभी के मैत्रक वंश के आधीन हो गए| भगवान जी  लाल इंद्र आदि इतिहासकारों ने मैत्रक वंश को भी हूण-गुर्जर समूह का माना हैं| भगवान जी लाल इंद्र के अनुसार भीनमाल से गुर्जर मालवा होते हुए भडोच आये वह एक शाखा को छोड़ते हुए गुजरात पहुंचे ज़हाँ उन्होंने मैत्रक वंश के नेतृत्व में वल्लभी राज्य की स्थापना की| मैत्रक ईरानी मूल के शब्द मिह्र/मिहिर का भारतीय रूपांतरण हैं, जिसका अर्थ हैं सूर्य| मिहिर शब्द का हूण-गुर्जर समूह के इतिहास से गहरा नाता हैं| हूण वराह और मिहिर के उपासक थे| मिहिर हूणों का दूसरा नाम भी हैं| मिहिर हूण और गुर्जरों की उपाधि भी हैं| हूण सम्राट गुल और गुर्जर सम्राट भोज दोनों की उपाधि मिहिर थी तथा वे मिहिर गुल और मिहिर भोज के रूप में जाने जाते हैं| मिहिर अजमेर के गुर्जरों की आज भी एक उपाधि हैं| इस बात के सशक्त प्रमाण हैं कि भडोच के गुर्जरों और वल्लभी के मैत्रको के अभिन्न सम्बन्ध थे | वल्लभी के मैत्रको ने भडोच के गुर्जरों और बेट-द्वारका, दीव, पाटन-सोमनाथ आदि के चावडो की सहयता से समुंदरी विदेशी व्यापार पर नियंत्रण स्थापित किया|

वल्लभी के मैत्रको के बाद भडोच के गुर्जर वातापी के चालुक्यो के भी सामंत रहे थे|

भडोच के गुर्जर वंश का सबसे प्रतापी राजा दद्दा II  था| उसके द्वारा जारी किये गए ताम्रपत्रो से पता चलता हैं कि वह सूर्य का उपासक था| उसके एक ताम्रपत्र से यह भी ज्ञात होता हैं कि उसने उत्तर भारत के स्वामी हर्षवर्धन (606-647 ई.) द्वारा पराजित वल्लभी के राजा की रक्षा की थी| वातापी के तत्कालीन चालुक्य शासक पुल्केशी II ने भी एहोल अभिलेख में हर्षवर्धन को नर्मदा के कछारो में पराजित करने का दावा किया हैं| वी. ए. स्मिथ ने वातापी के चालुक्यो को गुर्जर माना हैं| होर्नले ने इन्हें हूण मूल का गुर्जर बताया हैं| अतः ऐसा प्रतीत होता हैं कि हर्षवर्धन का युद्ध हूण-गुर्जर समूह के तीनो राजवंशो का एक परिसंघ से हुआ था, जिसमे आरम्भ में वल्लभी क्षेत्र में उसे सफलता मिली, किन्तु नर्मदा के तट पर लड़े गए युद्ध में वह दद्दा II एवं पुल्केशी II से पराजित हो गया|

दद्दा II  के बाद इस वंश के शासक ब्राह्मण संस्कृति के प्रभाव में आ गए| जिस कारण से अपनी कबीलाई पहचान गुर्जर के स्थान पर क्षत्रिय वर्ण की पहचान पर जोर देने लगे तथा सूर्य पूजा के स्थान पर अब उन्होंने शैव धर्म को अपना लिया| दद्दा III  इस परिवार का पहला शैव था| दद्दा III ने मनु स्मृति का अध्ययन किया तथा अपने राज्य में वर्णाश्रम धर्म को कड़ाई से लागू किया| इस वंश के अंतिम शासक जय भट III  द्वारा ज़ारी किया गया एक ताम्रपत्र नवसारी से प्राप्त हुआ हैं, जिसके अनुसार उसने भारत प्रसिद्ध कर्ण को अपना आदि पूर्वज बताया हैं| संभवतः मूल रूप से सूर्य मिहिर के उपासक गुर्जर भारतीय समाज में अपना रुतबा बढ़ाने के लिए मिथकीय नायक सूर्य-पुत्र कर्ण से अपने को जोड़ने लगे|

734 ई के बाद हमे भडोच के गुर्जरों के विषय में कुछ पता नहीं चलता| इस वंश के शासन का अंत का कारण अरब आक्रमण या फिर दक्षिण में राष्ट्रकूटो का उदय हैं|

भडोच के गुर्जरों के शासन (580-734 ई.) के समय आधुनिक गुजरात की जनसँख्या में गुर्जर तत्व का समावेश से इंकार नहीं किया जा सकता| किन्तु अभी तक आधुनिक गुजरात के किसी भी हिस्से का नाम गुजरात नहीं पड़ा था|

सन्दर्भ

1. 
भगवत शरण उपाध्यायभारतीय संस्कृति के स्त्रोतनई दिल्ली, 1991, 
2. रेखा चतुर्वेदी भारत में सूर्य पूजा-सरयू पार के विशेष सन्दर्भ में (लेख) जनइतिहास शोध पत्रिकाखंड-मेरठ, 2006
3. ए. कनिंघम आरकेलोजिकल सर्वे रिपोर्ट, 1864
4. के. सी.ओझादी हिस्ट्री आफ फारेन रूल इन ऐन्शिऐन्ट इण्डियाइलाहाबाद, 1968  
5. डी. आर. भण्डारकरफारेन एलीमेण्ट इन इण्डियन पापुलेशन (लेख)इण्डियन ऐन्टिक्वैरी खण्डX L 1911
6. ए. एम. टी. जैक्सनभिनमाल (लेख)बोम्बे गजेटियर खण्ड भाग 1, बोम्बे, 1896
7. विन्सेंट ए. स्मिथ, दी ऑक्सफोर्ड हिस्टरी ऑफ इंडिया, चोथा संस्करण, दिल्ली,
8. जे.एमकैम्पबैलदी गूजर (लेख)बोम्बे गजेटियर खण्ड IX भाग 2बोम्बे, 1899
9.के. सी. ओझा, ओझा निबंध संग्रह, भाग-1 उदयपुर, 1954
10.बी. एन. पुरी. हिस्ट्री ऑफ गुर्जर-प्रतिहार, नई दिल्ली, 1986
11. डी. आर. भण्डारकरगुर्जर (लेख)जे.बी.बी.आर.एस. खंड 21, 1903
12 परमेश्वरी लाल गुप्त, कोइन्स. नई दिल्ली, 1969
13. आर. सी मजुमदार, प्राचीन भारत
14. रमाशंकर त्रिपाठी, हिस्ट्री ऑफ ऐन्शीएन्ट  इंडिया, दिल्ली, 1987
                                          (Dr Sushil Bhati)

Wednesday, October 21, 2015

गुर्जर देश

डा. सुशील भाटी

   ( Key words- Gurjara Desha,  Bhinmal, Vyaghrmukha, Chapa, Chavda, Kanishka)
गुर्जर जाति ने अनेक स्थानों को अपना नाम दिया| गुर्जर जाति के आधिपत्य के कारण आधुनिक राजस्थान सातवी शताब्दी में गुर्जर देश कहलाता था|

हर्ष वर्धन (606-647 ई.) के दरबारी कवि बाणभट्ट ने हर्ष-चरित नामक ग्रन्थ में हर्ष के पिता प्रभाकरवर्धन का गुर्जरों के राजा के साथ संघर्ष का ज़िक्र किया हैं| संभवतः उसका संघर्ष गुर्जर देश के गुर्जरों के साथ हुआ था| अतः गुर्जर छठी शताब्दी के अंत तक गुर्जर देश (आधुनिक राजस्थान) में  स्थापित हो चुके था|

हेन सांग ने 641 ई. में सी-यू-की नामक पुस्तक में गुर्जर देश का वर्णन किया हैं| हेन सांग ने मालवा के बाद ओचलि, कच्छ, वलभी, आनंदपुर, सुराष्ट्र और गुर्जर देश का वर्णन किया हैं| गुर्जर देश के विषय में उसने लिखा हैं कि वल्लभी के देश से 1800 ली (300 मील) के करीब उत्तर में जाने पर गुर्जर राज्य में पहुँचते हैं| यह देश करीब 5000 ली (833 मील) के घेरे में हैं| उसकी राजधानी भीनमाल 33 ली (5 मील) के घेरे में हैं| ज़मीन की पैदावार और रीत-भांत सुराष्ट्र वालो से मिलती हुई हैं| आबादी घनी हैं लोग धनाढ्य और संपन्न हैं| वे बहुधा नास्तिक हैं, (अर्थात बौद्ध धर्म को नहीं मानने वाले हैं)| बौद्ध धर्म के अनुयाई थोड़े ही हैं| यहाँ एक संघाराम (बौद्ध मठ) हैं, जिसमे 100 श्रवण (बौद्ध साधु) रहते हैं, जो हीन यान और सर्वास्तिवाद निकाय के मानने वाले हैं| यहाँ कई दहाई देव मंदिर हैं, जिनमे भिन्न संप्रदायों के लोग रहते हैं| राजा क्षत्रिय जाति का हैं| वह बीस वर्ष का हैं| वह बुद्धिमान और साहसी हैं| उसकी बौद्ध धर्म पर दृढ आस्था हैं और वह बुधिमानो का बाद आदर करता हैं|

भीनमाल के रहने वाले ज्योत्षी ब्रह्मगुप्त ने शक संवत 550  (628 ई.) में अर्थात हेन सांग के वह आने के 13 वर्ष पूर्व ब्रह्मस्फुट नामक ग्रन्थ लिखा जिसमे उसने वहाँ के राजा का नाम व्याघ्रमुख और उसके वंश का नाम चप (चपराना, चापोत्कट, चावडा) बताया हैं| हेन सांग के समय भीनमाल का राजा व्याघ्रमुख अथवा उसका पुत्र रहा होगा|

भीनमाल का इतिहास गुर्जरों का नाता कुषाण सम्राट कनिष्क से जोड़ता हैं| प्राचीन भीनमाल नगर में सूर्य देवता के प्रसिद्ध जगस्वामी मन्दिर का निर्माण काश्मीर के राजा कनक (सम्राट कनिष्क) ने कराया था। मारवाड़ एवं उत्तरी गुजरात कनिष्क के साम्राज्य का हिस्सा रहे थे। भीनमाल के जगस्वामी मन्दिर के अतिरिक्त कनिष्क ने वहाँ करडा नामक झील का निर्माण भी कराया था। भीनमाल से सात कोस पूर्व ने कनकावती नामक नगर बसाने का श्रेय भी कनिष्क को दिया जाता है। कहते है कि भिनमाल के वर्तमान निवासी देवड़ा/देवरा लोग एवं श्रीमाली ब्राहमण कनक के साथ ही काश्मीर से आए थे। देवड़ा/देवरा, लोगों का यह नाम इसलिए पड़ा क्योंकि उन्होंने जगस्वामी सूर्य मन्दिर बनाया था। राजा कनक से सम्बन्धित होने के कारण उन्हें सम्राट कनिष्क की देवपुत्र उपाधि से जोड़ना गलत नहीं होगा। सातवी शताब्दी में यही भीनमाल नगर गुर्जर देश की राजधानी बना। ए. कनिघंम ने आर्केलोजिकल सर्वे रिपोर्ट 1864 में कुषाणों की पहचान आधुनिक गुर्जरों से की है और उसने माना है कि गुर्जरों के कसाना गौत्र के लोग कुषाणों के वर्तमान प्रतिनिधि है।

गुर्जर देश से गुर्जरों ने पूर्व और दक्षिण की तरफ अपना विस्तार किया| 580 ई के लगभग दद्दा I गुर्जर ने  दक्षिणी गुजरात के भडोच इलाके में एक राज्य की स्थापना कर ली थी| अपने अधिकांश शासन काल के दौरान भडोच के गुर्जर वल्लभी के मैत्रको के सामंत रहे| गुर्जर मालवा होते हुए दक्षिणी गुजरात पहुंचे और भडोच में एक शाखा को वह छोड़ते हुए समुन्द्र के रास्ते वल्लभी पहुंचे| मैत्रको के अतरिक्त चावडा भी छठी शताब्दी में समुन्द्र के रास्ते ही गुजरात पहुंचे थे| गुजरात में चावडा सबसे पहले बेट-सोमनाथ इलाके में आकर बसे|

छठी शताब्दी के अंत तक चालुक्यो ने दक्कन में वातापी राज्य की स्थापना कर ली थी| होर्नले के अनुसार वो हूण-गुर्जर समूह के थे|  मंदसोर के यशोधर्मन और हूणों के बीच मालवा में युद्ध लगभग 530 ई. में हुआ था| होर्नले का मत हैं कि यशोधर्मन से मालवा में पराजित होने के बाद हूणों की एक शाखा नर्मदा के पार दक्कन की तरफ चली गई| जिन्होने चालुक्यो के नेतृत्व वातापी राज्य की स्थापना की| वी. ए. स्मिथ भी चालुक्यो को गुर्जर मानते हैं|

आठवी शताब्दी के आरम्भ में गुर्जर-प्रतिहार उज्जैन के शासक थे| नाग भट I ने उज्जैन में गुर्जरों के इस नवीन राजवंश की नीव रखी थी| संभवत इस समय गुर्जर प्रतिहार भीनमाल के चप वंशीय गुर्जर के सामंत थे|

ये सभी हूण-गुर्जर समूह से संबंधित राज्य एक ढीले-ढाले परिसंघ में बधे हुए थे, जिसके मुखिया भीनमाल के चप वंशीय गुर्जर थे| हालाकि इनके बीच यदा-कदा छोटे-मोटे सत्ता संघर्ष होते रहते थे, किन्तु बाहरी खतरे के समय से सभी एक हो जाते थे| हर्षवर्धन के वल्लभी पर आक्रमण के समय यह परिसंघ सक्रिय हो गया| 634 ई. के लगभग वातापी के चालुक्य पुल्केशी II तथा भडोच के गुर्जर दद्दा II ने हर्षवर्धन को नर्मदा के कछारो में पराजित कर दिया था|

724 ई. में जुनैद के नेतृत्व में पश्चिमी भारत पर हुए अरब आक्रमण ने एक अभूतपूर्व संकट उत्पन्न कर दिया| पुल्केशी जनाश्रय के नवसारी अभिलेख के अनुसार ताज़िको (अरबो) ने तलवार के बल पर सैन्धव (सिंध), कच्छेल्ल (कच्छ), सौराष्ट्र, चावोटक (चापोत्कट, चप, चावडा), मौर्य (मोरी), गुर्जर आदि के राज्यों को नष्ट कर दिया था| इस संकट के समय भी हूण-गुर्जर समूह के राज्य एक साथ उठ खड़े हुए| इस बार इनका नेतृत्व उज्जैन के गुर्जर-प्रतिहार शासक नाग भट I ने किया| मिहिरभोज के ग्वालियर अभिलेख के अनुसार उसने मलेच्छो को पराजित किया| नवसारी के पास वातापी के चालुक्य सामंत पुल्केशी जनाश्रय ने भी अरबो को पराजित किया|

724 ई. में जुनैद के नेतृत्व में हुए अरब आक्रमण के बाद भीनमाल के गुर्जर कमजोर अथवा नष्ट हो गए| अरबो को पराजित कर नागभट I के नेतृत्व में उज्जैन के गुर्जर प्रतिहारो की शक्ति का उदय हुआ| कालांतर में उन्होंने गुर्जर देश पर अधिकार कर लिया| तथा इसी के साथ गुर्जरों की प्रभुसत्ता भीनमाल के चपो के हाथ से निकलकर उज्जैन के गुर्जर-प्रतिहारो के हाथ में आ गई| कालांतर में नाग भट II  के नेतृत्व में उज्जैन के गुर्जर-प्रतिहारो ने कन्नौज को जीतकर उसे अपनी राजधानी बनाया|

सन्दर्भ

1. 
भगवत शरण उपाध्यायभारतीय संस्कृति के स्त्रोतनई दिल्ली, 1991, 
2. रेखा चतुर्वेदी भारत में सूर्य पूजा-सरयू पार के विशेष सन्दर्भ में (लेख) जनइतिहास शोध पत्रिकाखंड-मेरठ, 2006
3. ए. कनिंघम आरकेलोजिकल सर्वे रिपोर्ट, 1864
4. के. सी.ओझादी हिस्ट्री आफ फारेन रूल इन ऐन्शिऐन्ट इण्डियाइलाहाबाद, 1968  
5. डी. आर. भण्डारकरफारेन एलीमेण्ट इन इण्डियन पापुलेशन (लेख)इण्डियन ऐन्टिक्वैरी खण्डX L 1911
6. ए. एम. टी. जैक्सनभिनमाल (लेख)बोम्बे गजेटियर खण्ड भाग 1, बोम्बे, 1896
7. विन्सेंट ए. स्मिथ, दी ऑक्सफोर्ड हिस्टरी ऑफ इंडिया, चोथा संस्करण, दिल्ली,
8. जे.एमकैम्पबैलदी गूजर (लेख)बोम्बे गजेटियर खण्ड IX भाग 2बोम्बे, 1899
9.के. सी. ओझा, ओझा निबंध संग्रह, भाग-1 उदयपुर, 1954
10.बी. एन. पुरी. हिस्ट्री ऑफ गुर्जर-प्रतिहार, नई दिल्ली, 1986
11. डी. आर. भण्डारकरगुर्जर (लेख)जे.बी.बी.आर.एस. खंड 21, 1903
12 परमेश्वरी लाल गुप्त, कोइन्स. नई दिल्ली, 1969
13. आर. सी मजुमदार, प्राचीन भारत
14. रमाशंकर त्रिपाठी, हिस्ट्री ऑफ ऐन्शीएन्ट  इंडिया, दिल्ली, 1987
                                                            (Dr Sushil Bhati)

Tuesday, September 22, 2015

कन्बी/कुनबी/कुर्मी जाति पुंज और गूजर

डा.सुशील भाटी

( Key words- Gurjara, Kurmi, Kunbi, kanbi,  Leva, kadwa, Patidar, caste-cluster, )

मूल विषय पर आने से पहले भारतीय जाति व्यवस्था के अंग- जनजाति, कबीलाई जाति, जाति, जाति पुंज आदि पर चर्चा आवश्यक हैं|

जनजाति (Tribe) अथवा कबीले का अर्थ हैं एक ही कुल वंश के विस्तार से निर्मित अंतर्विवाही जन समूह| जनजाति अथवा कबीला एक ही पूर्वज की संतान माना जाता हैं, जोकि वास्तविक अथवा काल्पनिक हो सकता हैं| रक्त संबंधो पर आधारित सामाजिक समानता और भाईचारा जनजातियो की खास विशेषता होती हैं| भील, मुंडा, संथाल, गोंड आदि जनजातियों के उदहारण हैं|

कबीलाई जाति (Tribal caste) वो जातिया हैं, जो मूल रूप से कबीले हैं, किन्तु भारतीय समाज में व्याप्त जाति व्यवस्था के प्रभाव में एक जाति बन गए, जैसे- जाट, गूजर, अहीर, मेव आदि| इन जातियों को हरबर्ट रिजले ने 1901 की भारतीय जनगणना में कबीलाई जाति (Tribal caste) कहा हैं|

जाति (Caste) एक अंतर्विवाही समूह के साथ-साथ एक प्रस्थिति (Status group) और एक व्यवसायी समूह भी हैं| किसी भी अंतर्विवाही समूह का एक पैत्रक व्यवसाय होना, जाति की खास विशेषता हैं| जैसे ब्राह्मण, बनिया, लोहार, कुम्हार, धुना, जुलाहा, तेली आदि जातियों का अपना एक पैत्रक व्यवसाय हैं|

एक ही भाषा क्षेत्र में ऐसी कई जातिया पाई जाती हैं जिनका एक ही व्यवसाय होता हैं| ऐसी जातियों के समूह को जाति पुंज (Caste cluster) कहते हैं| सामान्यतः एक सी प्रस्थिति और एक ही व्यवसाय में लगी जातियों के समूह को अक्सर एक ही नाम दे दिया जाता हैं जो अक्सर उनके व्यवसाय का नाम होता हैं| जैसे- उत्तर भारत में खाती, धीमान और जांगिड सभी बढ़ईगिरि का व्यवसाय करते हैं और सभी बढ़ई कहलाते हैं| जबकि वास्तविकता में वे अभी अलग- अलग अंतर्विवाही जातिया हैं| इसी प्रकार उत्तराखंड में सैनी नामक जाति पुंज में गोला और भगीरथी दो जातिया हैं| उत्तर प्रदेश में बनिया जाति पुंज में अग्रवाल, रस्तोगी और गिन्दोडिया आदि जातिया हैं| एक व्यवसाय से जुडी भिन्न जातियों का एक साँझा नाम उनके एक से व्यवसाय और क्षेत्रीय जाति सोपान क्रम में उनके एक से स्थान (Status) का धोतक हैं| एक जाति पुंज के अंतर्गत आनेवाली इन जातियों की भिन्न-भिन्न उत्पत्ति हैं तथा इनमे अधिकांश के किसी क्षेत्र में आबाद होने के काल भी भिन्न-भिन्न हैं|

कन्बी शब्द की उत्पत्ति कुटुम्बिन शब्द से हुई हैं| कुटुम्बिन शब्द का प्रयोग पूर्व मध्यकालीन गुजरात में भूमि दान सम्बन्धी ताम्पत्रो एवं लेखो-जोखो में किसान के लिए किया गया हैं| कुटुम्बिन/कुटुम्बी का अर्थ हैं किसान परिवार का मुखिया| पूर्व मध्यकालीन भूमि दान सम्बन्धी ताम्पत्रो एवं लेखो-जोखो में किसानो/कुटुम्बिनो की संख्या उनके नाम तथा उनके द्वारा जोती जानेवाली भूमि की माप अंकित की जाती थी| 


कन्बी, कुनबी अथवा कुर्मी भी एक जाति नहीं एक बल्कि जाति पुंज हैं| कन्बी, कुनबी और कुर्मी,  किसान जाति पुंज के क्षेत्रीय नाम हैं, जिसको हिन्दी में कुरमी, गुजराती में कन्बी तथा मराठी में कुनबी कहा जाता हैं| प्रोफेसर जे.एफ.हेविट- कुरमी (Kurmis) कुरमबस (Kurambas), कुदमबस(Kudambas), कुदम्बीस(Kudambis) भारत की सिंचित कृषि करने वाली महान जातियां थी|


वस्तुतः गुजराती भाषा क्षेत्र (गुजरात) में खेतीहर जातियों के वर्ग समूह को कन्बी कहते हैं| वस्तुतः इसमें लेवा, कड़वा, अन्जने, मतिया आदि पृथक जातिया हैं| कन्बी जाति पुंज के अंतर्गत आनेवाली इन जातियों की भिन्न-भिन्न उत्पत्ति हैं तथा इनमे अधिकांश के गुजरात में आबाद होने के काल भी भिन्न-भिन्न हैं|  जिनमे लेवा और कड़वा गूजर जनजाति का हिस्सा हैं| हालाकि सामान्य रूप से इन्हें वहाँ गूजर नहीं कहा जाता| किन्तु इनके बुजुर्गो और भाटो का मानना हैं कि ये पंजाब से आये हुए गूजर हैं| जबकि अन्जने,  मतिया आदि कन्बी जातियो की भिन्न उत्पत्ति हैं|

मराठी भाषा क्षेत्र (महाराष्ट्र) में  खेतीहर जातियों के वर्ग को कुनबी कहते हैं| यहाँ के कुनबी नामक जाति पुंज में तिरोले, माना, गूजर आदि जातिया हैं| मराठी समाज में इन्हें तिरोले कुनबी, माना कुनबी, गूजर कुनबी कहा जाता हैं| मराठी में समाज लेवा और कड़वा दोनों जातियों को गूजर कहा जाता हैं| इनके गुजराती लेवा और कड़वाओ से परंपरागत रूप से विवाह भी होते हैं| अतः गुजराती भाषा क्षेत्र (गुजरात) के लेवा, कड़वा और मराठी भाषा क्षेत्र (महाराष्ट्र) के लेवा, कड़वा गूजर एक ही हैं| जबकि मराठी भाषा क्षेत्र (महाराष्ट्र) तिरोले और माना कुनबी भिन्न उत्पत्ति की पृथक जाति हैं| दक्षिण भारत के मराठी समाज में यह आम धारणा हैं कि लेवा और कड़वा सहित सभी गूजर कुनबी उत्तर से आये हैं| जबकि तिरोले और माना स्थानीय उत्पत्ति के माने जाते हैं|

हिंदी भाषी मध्य प्रदेश के इन्दोर संभाग में भी लेवा गूजर मिलते हैं| होशंगाबाद में इन्हें मून्डले या रेवे गूजर कहते हैं| खानदेश गजेटियर के अनुसार रेवा गूजर और गुजरात के लेवा गूजर एक ही हैं| मध्य प्रदेश के लेवा गूजर कन्बी या कुनबी भी नहीं कहे जाते| मध्य प्रदेश के लेवा गूजर, महाराष्ट्र के लेवा और कड़वा गूजर कुनबी तथा गुजरात के लेवा कड़वा एक ही हैं क्योकि इनमे परंपरागत रूप से शादी ब्याह भी होते हैं| गुजरात का लेवा गुजरात के अन्जने,  मतिया आदि कन्बी जातियो या पूरे भारत की किसी भी अन्य कुनबी या कुर्मी जाति में शादी-ब्याह नहीं करते बल्कि मराठी लेवा कड़वा गूजर कुनबियो और मध्य प्रदेश के लेवा गूजरों से इनके ब्याह-शादी आम बात हैं|

हिंदी भाषी क्षेत्र के पूर्वी और मध्य उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश में खेतीहर जातियों के वर्ग को कुर्मी कहते हैं|

उत्तर प्रदेश में कुर्मी जाति पुंज की प्रमुख जातिया -  बैसवाल, बर्दिया, गंगा परी, जैसवार, कनौजिया, खरबिंद, पथरिया, पथरिया,  सैंथवार, सिंगरौर अकेरिथिया, अखवार, अथरिया, , अवधिया, अन्दर, इलाहाबादी, हार्डिया, उमराओ, सचान, कटियारकाचीसा, कर्जवा, कोयरी, कुरुम, खर्चवाह, लापरिबंध, भूर, खरबिंद, खुरसिया, हैंड्सरी, गेसरी, गंगवारगोटी, गोंडल, घिनाला, दखिनहा चनौ, चन्दौर, चंद्रौल, चंदपुराही, जरिया, जरुहार, तरमल, बाथम, बह्मनिआ, जादौन, जदन,  जैसवार, झामैया, झरी, ठकुरिहा, दिनद्वर्, डेल्फोरा, देसी, निरंजन, झुकारसी, महेसरी, पतरिहा, पतवार, बेसरिया, बर्दिया, पछल, बोटा, संसावं, मघैया, रमैया आदि हैं| इन जातियों की भिन्न-भिन्न उत्पत्ति हैं तथा इनमे अधिकांश के उत्तर प्रदेश में आबाद होने के काल भी भिन्न-भिन्न हैं|  

बिहार में कुर्मी जाति पुंज में इनसे भिन्न जातिया हैं- बिहार -  जयसवार,  अवधिया,. समसवार, घमैला, दोजवार, धानुक,  प्रसाद,  राम,  लाल, राय, मंगल, तैलंग, अभात, कैवर्तचपरिया,  विश्वास, शरण, मूलवासी, घनमैला, कोचैसा, सैंठवारव्याहुत, ग्राई, धीजमा, घोड़चढ़े, भगत, पटनवार, मथुरवार,  बड़वार, शंखवार, बसरियार, टिंडवार, शाक्य, मोर्य, आदि| इन जातियों की भिन्न-भिन्न उत्पत्ति हैं तथा इनमे अधिकांश के बिहार क्षेत्र में आबाद होने के काल भी भिन्न-भिन्न हैं|

इस प्रकार हम देखते हैं हिंदी भाषी क्षेत्र के पूर्वी और मध्य उत्तर प्रदेश और बिहार  में खेतीहर जातियों के कुर्मी जाति पुंज में गूजर मूल के लेवा और कड़वा नहीं मिलते| मध्य प्रदेश में कुर्मी जाति पुंज तो हैं परन्तु महाराष्ट्र और गुजरात के तरह यहाँ लेवा गूजर  कुर्मी या अन्य किसी किसान जाति पुंज का हिस्सा नहीं हैं| संभवतः यहाँ इन्होने पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, यू. पी. आदि के गूजर की तरह अपना सैनिक व्यवसाय और राजसी तौर-तरीको को पूरी तरह नहीं छोड़ा था| जबकि महाराष्ट्र और गुजरात में लेवा और कड़वा पूरी तरीके से साधारण किसान बन गए थे, अतः वो वहाँ किसान जातियों के पुंज का हिस्सा बन गए|

अतः भिन्न भाषा क्षेत्रो में किसान जातियों के पुंज में अलग अलग जातिया हैं| एक जाति पुंज के अंतर्गत आनेवाली इन जातियों की भिन्न-भिन्न उत्पत्ति हैं तथा इनमे अधिकांश के किसी क्षेत्र में आबाद होने के काल भी भिन्न-भिन्न हैं| कुनबी अथवा कुर्मी जाति पुंज के अंतर्गत आने वाली अधिकांश जातिया भारतीय अनुसूचित जनजातिया की तरह प्रोटो-ओस्ट्रोलोइड नस्ल की हैं| प्रोटो-ओस्ट्रोलोइड मूल के लोग मध्य कद काठी के श्याम वर्ण के लोग हैं| अधिकांश भारतीय अनुसूचित जनजातिया भी  प्रोटो-ओस्ट्रोलोइड नस्ल की हैं, जैसे- भील, शबर, संथाल आदि| हरबर्ट रिजले ने 1901 की भारतीय जनगणना में गूजर जाति को इंडो-आर्य नस्ल का बताया हैं| कन्बी/कुनबी/कुर्मी जाति पुंजो के अन्य जातियों से भिन्न गुजरात के लेवा और कड़वा पंजाब से आये हुए गूजर हैं| इनका रंग-रूप और उनकी पगड़ी, उनके खेती का तरीका इस बात की पुष्टि करता हैं|

बॉम्बे गजेटियर, खंड 9 भाग 2 के अनुसार गुजरात के लेवा तथा कड़वा/खंडवा कन्बी दोनों के लिए इस बात को ज़ाहिर करने का विशेष महत्व हैं, जोकि गुजरात में अब तक सावधानीपूर्वक छिपा कर रखा गया था, कि उत्तरी गुजरात और भडोच में रहने वाली पाटीदारो और कन्बियो की बड़ी आबादी वंशक्रम में गूजर हैं| उत्तरी गुजरात के कन्बी और पंजाब के गूजरो को द्वारका (गुजरात) में इस बात से संतुष्ट होते देखा जाना कोई अपवाद नहीं हैं हैं कि दोनों एक ही मूल(stock) के हैं| पाटीदार जाति के जूनागढ़ निवासी हिम्मतभाई अजा भाई वहीवतदार का 1889 में जूनागढ़ में दिया गया यह वक्तव्य कन्बियो और पाटीदारों की गूजर उत्त्पत्ति के प्रश्न को अंतिम रूप से तय करता हुए प्रतीत होता हैं- मैं संतुष्ट हूँ कि गुजरात के कन्बी और पाटीदार, लेवा और खंडवा दोनों, गूजर हैं| हमारे पास इस सम्बन्ध में लिखित कुछ भी नहीं हैं परन्तु हमारे भाट और परिवारों का लेखा-जोखा रखने वाले इसे जानते हैं, लेवा और खंडवा दोनों पंजाब से आये हैं, यह बुज़र्गो का कहना हैं| भाटो का कहना हैं कि हमने बीस पीढ़ी पहले पंजाब छोड़ दिया था| एक सूखा हमें गंगा और ज़मुना के बीच की ज़मीन पर ले गया| पन्द्रह पीढ़ी पहले लेवा खानदेश होते हुए अहमदाबाद आये तथा खानदेशी तम्बाकू अपने साथ (गुजरात) लाये| .......सबसे पहले वो चंपानेर आये| हम अभी भी पता कर सकते हैं कि हम पंजाब के गूजर हैं| हमारे जुताई का तरीका एक हैं, हमारा हल एक (जैसा) हैं, हमारी पगड़ी एक (जैसी) हैं, हम एक ही तरीके से खाद का इस्तेमाल करते हैं| हमारे शादी-ब्याह के रिवाज़ एक (जैसे) हैं, दोनों ब्याह के समय तलवार धारण करते हैं| रामचंद्र के दो बेटे थे| लव से लेवा ज़न्मे और कुश से खंडवा| मैंने पंजाब के गूजरों से द्वारका में बात की हैं, उन्होंने बताया कि उनके नरवादारी और भागदारी गांव हैं|


Notes and References

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  4. के. एल. पंजाबी, इनडोमिटेबल सरदार, पृ 4
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  6. बॉम्बे गजेटियर, खंड IX भाग II, 1889, पृ.491
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  12.  मधु लिमये, सरदार पटेल: सुव्यवस्थित राज्य के प्रणेता, दिल्ली, 1993, पृ.8
  13.  के. एल. पंजाबी, इनडोमिटेबल सरदार, पृ 4
  14. http://www.kurmisamajindore.com/our-proud.php
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  17. भारतीय जनगणना 1891- https://en.wikipedia.org/wiki/1891_census_of_India
  18.  खान देश गजेटियर https://gazetteers.maharashtra.gov.in/cultural.maharashtra.gov.in/english/gazetteer/Khandesh%20District/population_race.html#1
                                                                                                                                       (Dr Sushil Bhati)