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Friday, February 22, 2013

वराह उपासक मिहिर पर्याय हूण

(गुर्जरों की हूण उत्पत्ति पर नवीन दृष्टी)
                             
 डा. सुशील भाटी
                                 
 पांचवी शताब्दी के अंत में श्वेत हूणों ने पश्चिमोत्तर से भारत में विजेता के तौर पर प्रवेश किया| उन्होंने तोरमाण और उसके बेटे मिहिरकुल के नेतृत्व में उत्तर भारत से गुप्तो के प्रभुसत्ता समाप्त कर हूण साम्राज्य की स्थापना की| तोरमाण ने ग्वालियर के निकट चम्बल नदी के किनारे स्थित पवैय्या को और मिहिरकुल ने स्यालकोट, पंजाब को अपनी राजधानी बनाया| भारत में हूण साम्राज्य आधी शताब्दी से अधिक (475-533 ई.) तक स्थिर रहा| मिहिरकुल के हाथ से 533 ई.में उत्तर भारत का साम्राज्य निकल जाने के बाद भी हूण पश्चिमोत्तर भारत और काश्मीर में लंबे समय तक राज करते रहे|  पुराणों के अनुसार उन्होंने भारत में तीन सौ साल राज किया|

चीनी स्त्रोतों के अनुसार श्वेत हूण 125 ई. में आधुनिक चीनी प्रान्त सिकियांग के उत्तरी इलाके ज़ुन्गारिया में चीन की महा दीवार के उत्तर में रहते थे| इतिहासकारों के अनुसार भारत आने वाले श्वेत हूणों की शक्ति का उदय पांचवी शताब्दी में उत्तर-पूर्वी इरान और पश्चिमोत्तर भारत में हुआ| ये भारोपीय भाषा समूह की पूर्वी ईरानी भाषा बोलते थे| इनकी भाषा में तुर्की भाषा का प्रभाव भी दिखाई देता हैं| श्वेत हूण इरान के ज़ुर्थुस्त धर्म से प्रभावित थे और वे सूर्य और अग्नि के उपासक थे, जिन्हें वो अपनी भाषा में क्रमश मिहिर और अतर कहते थे| 

प्राचीन चीनी इतिहासकारों एवं प्रोपीकुयस के अनुसार श्वेत हूण यूची-कुषाण कबीलो से सम्बंधित लोग थे, जोकि हिंग नु जाति के हमले के समय तारीम घाटी में ही रह गए थे| | यूची, ईसा से पूर्व, चीनी तुर्केस्तान स्थित तारिम घाटी में रहने वाले भारोपीय भाषा समूह की पूर्वी ईरानी बोलने वाले नार्डिक/आर्य नस्ल के लोग थे| यूची भी मिहिर-सूर्य और अतर-अग्नि  के उपासक थे| ईसा की पहली तीन शताब्दियों में, कुषाणों के नेतृत्व में यूचियो ने, बक्ट्रिया को आधार बना कर मध्य एशिया और उत्तर भारत में एक साम्राज्य का निर्माण किया| इनका सबसे प्रभावशाली सम्राट कनिष्क था, जिसने पेशावर से राज किया| कुषाणों के अभिलेख ईरानी प्रभाव वाली खरोष्टी और यूनानी लिपि में मिले हैं|

श्वेत हूणों से पहले हूणों कि एक अन्य शाखा हारा हूण ने भारत में अपनी उपस्तिथि दर्ज कराई | यहाँ हारा शब्द का अर्थ लाल अथवा दक्षिणी हैं| चीनी स्त्रोतों के अनुसार हूणों की वो शाखा जो किदार (320 ई.) के नेतृत्व में दक्षिणी बक्ट्रिया में शक्तिशाली हुई वो हारा हूण’ (Red Xionites or Red Huns) कहलाई| हारा हूणों को इनके संथापक शासक किदार  के नाम पर, किदार हूण ( kidarite Xionites or Kidarite Huns) भी कहा जाता था| कालांतर में इन्ही हूण कबीलो में से कुछ वुसुन जाति से पराजित होकर पश्चिमी बक्ट्रिया में बस गए| यहाँ ये हेप्थलाइट वंश के नेतृत्व में पुनः शक्तिशाली हो गए और श्वेत हूण कहलाने लगे| इस प्रकार हारा हूणों और श्वेत हूणों में कोई अंतर नहीं था, फर्क केवल स्थान का था, श्वेत हूण का मतलब हैं- पश्चिमी हूण  और हारा हूण का अर्थ हैं- दक्षिणी हूण| हारा हूणों ने किदार द्वितीय (360 ई.), जोकि पश्चिमोत्तर सिंधु घाटी में कुषाणों का सामंत था, के नेतृत्व में अंतिम कुषाण राजा को हरा कर भारत में अपनी शक्ति को प्रतिष्ठित किया था| हारा हूण अपने को कुषाण कहते थे, इन्होने कुषाणों की उपाधि शाही भी धारण की थी| किदार के सिक्को पर उसके नाम के साथ शाही और कुषाण लिखा मिला हैं| स्पष्ट हैं कि हारा हूण अपने को कुषाणों से सम्बंधित मानते थे और उनके साम्राज्य पर अपना वैध अधिकार मानते थे| एकता के इन प्रयासों से हारा हूणों और कुषाण कबीले एकाकार हो गए| इन्ही कारणों से इतिहासकार हारा हूणों को किदार कुषाण भी कहते हैं| कालिदास के ग्रन्थ रघुवंशम में, गांधार स्थित जिन हूणों का ज़िक्र हुआ हैं वो, तथा वो हूणों जिन्हें स्कंदगुप्त ने 455 ई. में पराजित किया था, सभी हारा हूण थे| भारतीय भी सामान्यत हारा हूण और श्वेत हूणों में अंतर नहीं समझते थे| संभवतः, हारा हूणों ने पश्चिमी तथा दक्षिणी राजस्थान और मालवा के इलाके में अपना प्रभाव बना लिया था| कालांतर में श्वेत हूणों ने भारत प्रवेश के समय सबसे पहले हारा हूणों को पराजित कर उनके इलाको को ही अपने अधीन किया था|

 हूण मुख्य रूप से मिहिर यानि सूर्य के उपासक थे, यहाँ तक कि हूणों को मिहिर भी कहा जाता था| हूणों के प्रसिद्ध नेता मिहिरकुल के एक सिक्के पर उसका नाम सिर्फ मिहिर अंकित हैं| हूणों ने भारत में अनेक सूर्य मंदिरों का निर्माण कराया| कुछ इतिहासकारों का मानना हैं कि मुल्तान और भीनमाल के सूर्य मंदिरों का निर्माण हूणों ने बौद्ध मंदिरों को ध्वस्त कर उनके भग्नावेशो पर करवाया था| कुछ अन्य इतिहासकार इन दोनों सूर्य मंदिरों की स्थापना का श्रेय कुषाणों को देते हैं| मिहिरकुल ने ग्वालियर में किले का निर्माण कराया था और वह एक सूर्य मंदिर की स्थापना की| इस मंदिर से उसका एक अभिलेख भी मिला हैं| मिहिरकुल के सिक्को पर सासानी प्रभाव वाली ईरानी ढंग की अग्नि वेदी सेविकाओ के साथ और सूर्य का प्रतीक रथ चक्र दिखाई देते हैं, जोकि हूणों के सूर्य और अग्नि उपासक होने के प्रमाण हैं| वैसे, भारत में सासानी प्रभाव से युक्त ईरानी ढंग की वेदी वाले सिक्के सबसे पहले हारा हूणों ने चलाये थे, इन सिक्को पर अग्नि वेदी सेविकाओ के साथ दिखाई देती हैं|
             

Varaha Statue at Eran 
हूणों मिहिर के अलावा वराह के भी उपासक थे| वराह पूजा की शुरुआत भारत के मालवा और ग्वालियर इलाके में लगभग उस समय हुई जब हूणों ने यहाँ प्रवेश किया| आरम्भ में हूण पश्चिमी तथा दक्षिणी राजस्थान, मालवा और ग्वालियर इलाको में शक्तिशाली हुए| यही पर हमें हूणों के प्रारभिक सिक्के और अभिलेख मिलते हैं| भारत में हूण शक्ति को स्थापित करने वाले उनके नेता तोरमाण ने इसी इलाके के एरण, जिला सागर, मध्य प्रदेश में वाराह अवतार की विशालकाय मूर्ति स्थापित कराई थी जोकि भारत में प्राप्त सबसे पहली वाराह मूर्ति हैं| तोरमाण के शासन काल के प्रथम वर्ष का अभिलेख इसी मूर्ति से मिला हैं, अभिलेख की शुरुआत वाराह अवतार की प्रार्थना से होती हैं, जोकि इस बात का सबूत हैं कि हूण और उनका नेता तोरमाण भारत प्रवेश के समय से ही वराह के उपासक थे| पूर्व ग्वालियर रियासत स्थित उदयगिरी की गुफा में वराह अवतार पहला चित्र मिला हैं, जोकि हूणों के आगमन के काल का ही हैं|  

साइबेरिया में वराह के सिर वाले देवताओ का चलन पहले से ही था और  मध्य एशियाई शक, हूण आदि कबीले इससे पहले से ही प्रभावित थे| इतिहासकार आर. गोइत्ज़ (R. Goetz) के अनुसार जिस समय भारत में वराह देवता का आम चलन हुआ, उसी समय इरानी दुनिया, अफगानिस्तान, और सासानी साम्राज्य में भी वराह ज़ुर्थुस्त भगवान वेरेत्रघ्न के रूप में पहली बार दिखाई देता हैं| उस समय हिंदू, बौद्ध और ईरानी, सभी को, श्वेत हूणों के साथ संघर्ष करना पड़ रहा था, इसलिए इस सम्प्रदाय का साँझा स्त्रोत हूणों के साथ खोजना ही अधिक तर्कसंगत हैं| वैष्णव, तांत्रिक बौद्ध और ज़ुर्थुस्त धर्मो में वराह देवता का एक साथ पर होने वाला ये उभार, संभवतः, हूणों या गुर्जरों से सम्बंधित किसी कबीलाई सौर देवता को अपने धर्मो में अवशोषित करने के प्रयास था|

गोएत्ज़, एरण स्थित वराह मूर्ति को वराह-मिहिर की मूर्ति बताते हैं और इसकी स्थापना का श्रेय तोरमाण हूण को देते हैं| गोएत्ज़ कहते हैं, क्योकि हूण सूर्य उपासक थे, इसलिए वराह और मिहिर का संयोग सुझाता हैं कि वराह उनके लिए सूर्य के किसी आयाम का प्रतिनिधित्व करता था| उनकी इस बात की पुष्टि ईरानी ग्रन्थ जेंदा अवेस्ता के मिहिर यास्त से होती हैं, जिसमे कहा गया हैं कि मिहिर/सूर्य जब चलता हैं तो वेरेत्रघ्न वराह रूप में उसके साथ चलता हैं| वेरेत्रघ्न युद्ध में विजय का देवता हैं| इसके भारतीय देवता विष्णु की तरह दस अवतार हैं| दोनों का ही, एक अवतार वराह भी हैं|

हालाकि वराह अवतार को उपनिषदो में चिन्हित किया जाता हैं, लेकिन इसे मुख्य रूप से हूणों और गुर्जरों से जोड़ा जाना चाहिए| यधपि वराह अवतार पहले से ज्ञात था, परन्तु सम्भावना हैं कि यह किसी विदेशी कबीलाई पंथ के स्थानपन्न के रूप में लोकप्रिय हुआ होगा| यही कारण हैं कि उत्तर भारत में वराह अवतार की अधिकतर मूर्तिया 500-900 ई. के मध्य की हैं, जोकि हूण-गुर्जरों का काल हैं| हूणों का नेता तोरमाण वराह अवतार का भक्त था और गुर्जर सम्राट मिहिरभोज भी वराह उपासक था| अधिकतर वराह मूर्तिया, विशेषकर वो  जोकि विशुद्ध वराह जानवर जैसी हैं, गुर्जर-प्रतिहारो के काल की हैं| तोरमाण हूण द्वारा एरण में स्थापित वराह मूर्ति भी विशुद्ध जानवर जैसी हैं| 1000 ई. के बाद की वराह मूर्तिया तो इक्की-दुक्की ही मिलती हैं| इसी समय सूर्य देवता का भी लोकप्रिय चलन हुआ, जोकि इसी (वराह की) तरह विदेशी मिहिर देवता का अनुकूलन था|

विष्णु भी वेरेत्रघ्न और वराह की तरह सूर्य/मिहिर से सम्बंधित देवता हैं, इस कारण से भी हूणों के आगमन पर विष्णु के वराह अवतार की पूजा को बल मिला होगा| भारत और इरान की कुछ सांझी अथवा सामानांतर मिथकीय परंपरा हैं, जो दोनों देशो की विरासत हैं, वराह अवतार की पूजा भी इनमे से एक हैं|

यूरोप में वराह (जंगली सूअर) को हूणों का पर्याय माना जाता हैं, इसे हूणों कि शक्ति और साहस का प्रतीक समझा जाता हैं| यूरोप में हंगरी हूणों के वंशजो का देश हैं| रोमानिया और हंगरी में विशालकाय वराह की प्रजाति को आज भी अटीला पुकारते हैं| अटीला(434-455 ई.) हूणों के उस दल का नेता था जिसने पांचवी शताब्दी में रोमन साम्राज्य को पराजित कर यूरोप में तहलका मचा दिया था| यूरोप के बोहेमिया देश में हूणों से सम्बंधित एक प्राचीन राजपरिवार का नाम बोयर अथवा बुजाइस हैं| बोयर का अर्थ हैं जंगली सूअर/वराह जैसा आदमी| भारत के इतिहास में भी वराह हूणों का पर्याय मालूम पड़ता हैं| कल्हण कृत राजतरंगिणी के अनुसार विष्णु के वराह और नरसिंह अवतारों द्वारा मारे जाने वाले दैत्यों के नामधारी राजा हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप पंजाब में हूणों के पड़ोस में राज़ करते थे| संभवत: हूणों ने इन्हें मारा हो| इस प्रकार विष्णु के अवतार वराह द्वारा दैत्य हिरण्याक्ष के वध की कथा में वराह पर्याय हूण और उनके पडोसी राजा हिरण्याक्ष के मध्य हुए युद्ध का अक्स दिखाई पड़ता हैं| गोएत्ज़ के अनुसार हूणों के निष्काषन के बाद एरण में, हूणों द्वारा निर्मित वाराह मूर्ति के पास ही एक नरसिंह अवतार का मंदिर बनवाया गया| यह मात्र वराह मूर्ति के घटते हुए महत्व का ही नहीं  दर्शाता हैं, बल्कि वराह पर्याय हूणों कि पराजय का भी ध्योतक हैं|

भारत और इरान दोनों देशो में मिहिर-सूर्य पूजा और वराह पूजा संयुक्त धार्मिक विश्वास हैं| मिहिर-सूर्य और वराह के आपसी जुडाव का इस बात से भी अहसास होता हैं कि कृष्ण के पुत्र साम्ब द्वारा भारत में पहले सूर्य मंदिर कि स्थापना और सूर्य पूजा के लिए शक द्वीप से मग ब्राह्मणों को बुलाने की कथा भी वराह नामक पुराण में आती हैं| वराह और सूर्य के धार्मिक विश्वास की संयुक्तता की अभिव्यक्ति कुछ स्थानो और व्यक्तियों के नामो में भी दिखाई देता हैं, जैसे- उत्तर प्रदेश के बहराइच स्थान का नाम वाराह और आदित्य शब्दों से वाराह+आदित्य= वाराहदिच्च/ वाराहइच्/ बाहराइच/ बहराइच होकर बना हैं| मिहिरकुल हूण ने अपने पराभव काल में कश्मीर में शरण ली थी, उसने श्री नगर के निकट मिहिरपुर नगर बसाया था| कश्मीर में ही बारामूला नगर हैं ,जोकि प्राचीन काल के वाराह+मूल स्थान का अपभ्रंश हैं| मूल सूर्य का पर्याय्वाची हैं|  इसी प्रकार तोरमाण  हूण (475-515.) और मिहिकुल हूण (515-533 ई.) के समकालीन भारतीय नक्षत्र विज्ञानी वराह-मिहिर (505-587 ई.) के नाम में तो दोनों शब्द एक दम साफ़ तौर पर देखे जा सकते हैं| इतिहासकार डी. आर. भंडारकर वराह मिहिर को ईरानी मूल का मग पुरोहित मानते हैं| इस प्रकार प्रतीत होता हैं कि वाराह और मिहिर परस्पर जुड़े हुए धार्मिक विश्वास हैं, जोकि ज़ुर्थुस्थ धर्म से प्रभावित हूणों के साथ भारत आये|

वाराह और मिहिर की युति हमें गुर्जर-प्रतिहार सम्राट भोज महान के मामले में भी दिखाई देती हैं| 
Varaha Coin of  Gurjara Emperor Bhoja
  भोज की एक अन्य उपाधि वराह थी, उत्तर भारत के बहुत से स्थानों से हमें  भोज महान के वराह के चित्र वाले  चांदी के सिक्के प्राप्त हुए हैं, जिन पर श्रीमद आदि वराह लिखा हैं| समकालीन अरबी  इतिहासकारों ने सभी गुर्जर-प्रतिहार सम्राटों को बौरा यानि वराह कहा हैं, यह इनका पारवारिक उपनाम मालूम पड़ता हैं| यहाँ आपको याद दिला दू कि ठीक इसी प्रकार यूरोप में हूणों को वराह कहा जाता रहा हैं, और यूरोप के बोहेमिया में भी हूणों से सम्बंधित एक राजपरिवार को बोयर/वाराह कहा जाता था|

भारतीय इतिहास में हूणों और गुर्जर प्रतिहारो के बीच बहुत से सामानांतर तथ्य हैं| ग्वालियर से मिहिरकुल हूण (515-533 ई.) का एक अभिलेख मिला हैं| भोज महान (836-885 ई.) का भी एक अभिलेख ग्वालियर से मिला हैं, कन्नौज से विस्थापित होने के बाद प्रतिहारो ने ग्वालियर को ही अपना केन्द्र बनाया था| ग्वालियर इलाका पहले हूणों का और कालांतर में गुर्जरों के शक्ति का केंद्र रहा हैं| गुर्जरों की घनी आबादी और प्राचीन काल से ही यहाँ हूण-गुर्जरों के शक्तिशाली होने के कारण ग्वालियर इलाका उन्नीसवी शताब्दी तक गूजराघार कहलाता था|

भोज महान के वास्तविक नाम मिहिर और हूण सम्राट मिहिरकुल के नाम में मिहिर शब्द की समानता भी कम उलेखनीय नहीं है| मिहिरकुल हूण को मिहिर भी कहा जाता था, उसके एक सिक्के पर उसका नाम सिर्फ मिहिर अंकित हैं|  मिहिरकुल हूण के सिक्को की भाति हमें भोज महान के सिक्के भी ईरानी सासानी ढंग के हैं और इन पर भी सेविकाओ सहित अग्नि वेदिका और सूर्य का प्रतीक रथ चक्र अंकित हैं| प्रो. विशम्बर शरण पाठक का मत हैं कि मिहिरभोज की मुद्राओ पर चित्रित अग्नि और उसके खुद का नाम मिहिर होना उसे सूर्य उपासना से जोड़ते हैं| प्रो. पाठक का यह कथन मिहिरकुल पर भी लागू होता हैं|

हूण सम्राट तोरमाण और मिहिरकुल भैंस के सिर वाला चांदी का मुकुटपहनते थे| जोकि हूण-गुर्जरों का प्राचीन काल से ही भैस पालक होने का प्रमाण हैं| जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश एवं उत्तराखंड के घुमुन्तु चरवाहे गुर्जर आज भी भैस पालक ही हैं| हूणों के इतिहास से समानता रखने वाले गुर्जर सम्राट भोज महान से जुड़े उपरोक्त सभी तथ्य गुर्जरों की हूणों से उत्पति के सिद्धांत को मज़बूत आधार प्रदान करते हैं|

इतिहासकार वी. ए. स्मिथ और विलियम क्रुक ने गुर्जरों को हूणों से सम्बंधित माना हैं| उनके अनुसार इसकी प्रमुख वजह यह थी कि छठी शताब्दी में गुर्जरों का उदय पश्चिमी भारत में ठीक हूणों के आक्रमण और उनके पतन के बाद हुआ| | कैम्पबेल और डी. आर. भंडारकर गुर्जरों की उत्पत्ति खज़र नामक कबीले से मानते हैं, वे खज़र जाति को श्वेत हूणों की शाखा मानते हैं| डी. आर. भंडारकर के अनुसार चन्द्र बरदाई कृत पृथ्वीराज रासो में अग्निकुंड से उत्पन्न बताये गए राजघराने गुर्जर-प्रतिहार, चालुक्य/सोलंकी, परमार/पंवार और चौहान  खज़र-हूण मूल के गुर्जर थे| इतिहासकार होर्नले तोमर, कछवाहो और चालुक्यो को हूण मूल का गुर्जर मानते हैं| होर्नले के अनुसार मालवा में यशोधर्मण से 528 ई. में हारने के  के पश्चात हूणों का एक दल नर्मदा नदी पार कर दक्कन चल गया, कालांतर में इन्होने ही वातापी के चालुक्य वंश कि स्थापना की| गुर्जर-प्रतिहारो की तरह ही चालुक्यो का शाही निशान भी वराह था| उनके सिक्को पर भी वराह अंकित रहता था| इन सिक्को को वराह के नाम से पुकारा जाता था|  चालुक्यो ने हूण नाम के सिक्के भी चलवाए| ऐसा प्रतीत होता हैं कि, सातवी शताब्दी में गुर्जरों का उत्थान वास्तव में एक नए जातिय नाम के साथ  हूणों का ही पुनरुत्थान था|

सूर्य और वराह पूजा हूणों की ही तरह उनके वंशज कहे जाने वाले गुर्जरों में विशेष रूप से विधमान रही हैं| इस बात की पुष्टि गुर्जरों से जुड़े रहे स्थलों पर दृष्टी डालने से हो जाती हैं| सातवी शताब्दी में लिखित बाण भट्ट कृत हर्षचरित में गुर्जरों का पहली बार उल्लेख हुआ हैं| इसी काल में चीनी यात्री हेन सांग (629-645 ई.)भारत आया था, उसने अपनी पुस्तक सीयूकी में आज के राजस्थान को गुर्जर देश कहा हैं और भीनमाल को इसकी राजधानी बताया| भीनमाल से इस काल में निर्मित सूर्य देवता के प्रसिद्ध जग स्वामी मंदिर के भग्नावेश मिले हैं| यहाँ एक वराह मंदिर भी हैं| गुर्जरों का पहला अभिलेख भडोच, सूरत से प्राप्त हुआ हैं| यह भडोच के शासक दद्दा द्वितीय (633 ई.) का हैं| इस अभिलेख पर सूर्य शाही निशान(emblem) के तौर पर मौजूद हैं| इस प्रकार स्पष्ट हैं कि  गुर्जर आरम्भ से ही सूर्य और वाराह के उपासक थे|

 गुर्जर प्रतिहारों की राजधानी कन्नौज में भी वराह की पूजा होती थी और वहा वराह का मंदिर भी था| पुष्कर जोकि गुर्जरों का सबसे बड़ा तीर्थ माना जाता हैं, यहाँ से सौ मील के दायरे तक के गुर्जर अपने मृतको के अंतिम संस्कार के लिए यहाँ आते हैं| यहाँ भी वराह मंदिर और वराह घाट हैं| वराह घाट पर स्नान करना सबसे अधिक पुण्य प्रदान करने वाला मन जाता हैं| पदम पुराण के अनुसार ब्रह्मा ने पुष्कर में, गुर्जर कन्या गायत्री से विवाह कर, एक हवन किया था| यहाँ ब्रह्मा और गायत्री के मंदिर भी हैं| गायत्री मन्त्र सूर्य आराधना से सम्बंधित हिन्दुओ का सबसे महत्वपूर्ण मन्त्र माना जाता हैं| सूर्य सम्बन्धी गायत्री मन्त्र का व्यक्तिकरण गुर्जर कन्या के रूप होना, निसंदेह गुर्जरों का विशेष रूप से सूर्य उपासक होने का प्रमाण है|

मथुरा भी ऐतिहासिक तौर पैर गुर्जरों से जुडा रहा हैं और यहाँ आज भी गुर्जरों की आबादियाँ हैं| इतिहासकार केनेडी मथुरा के कृष्ण की बाल लीलाओ की कथाओ के प्रचलन का श्रेय गुर्जरों को देते हैं| मथुरा में भी प्राचीन वराह मंदिर हैं|

मिहिरऔर वाराहहूणों और गुर्जरों दोनों के ही समान रूप से ने केवल आराध्य थे बल्कि ये इनके उपनाम और उपाधि भी थे| डी. आर. भंडारकर ने गुर्जरों के पहचान हूणों से की हैं क्योकि हूणों को मिहिर भी कहते थे और मिहिर आज भी अजमेर राजस्थान में गुर्जरों सम्मानसूचक उपाधि हैं| यूरोप में वराह हूणों का पर्याय रहा हैं और भारत में वराह प्रतिहार वंश के गुर्जर सम्राटों की उपाधि थी| यह बात भी साफ़ हो रही हैं कि भारत आने वाले श्वेत हूण और अटीला के नेतृत्व में यूरोप जाने वाले हूण सिर्फ नाम ही नहीं जातिय तौर पर भी एक ही थे|

                                                                                                                  (Dr Sushil Bhati)

Tuesday, February 19, 2013

1857 के स्वतन्त्रता संग्राम में अवन्तिबाई की भूमिका ( Avanti Bai Lodhi )

डॉ. सुशील भाटी 

डॉ महीपाल सिंह 


भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास के पूर्वाग्रहीत एवं त्रुटिपूर्ण लेखन के कारण बहुत से त्यागी, बलिदान, शहीदों और राष्ट्रनिर्माताओं को इतिहास के ग्रन्थों में उचित सम्मानपूर्ण स्थान नहीं मिल सका है। परन्तु ये शहीद और राष्ट्रनिर्माता जन-अनुश्रुतियों एवं जन-काव्यों के नायक एवं नायिकाओं के रूप में आज भी जनता के मन को अभीभूत कर उनके हृदय पर राज कर रहे हैं। उनका शोर्यपूर्ण बलिदानी जीवन आज भी भारतीयों के राष्ट्रीय जीवन का मार्गदर्शन कर रहा है।
अमर शहीद वीरांगना अवन्तिबाई लोधी भी एक ऐसी ही राष्ट्र नायिका हैं जिन्हें इतिहास में उचित स्थान प्राप्त नहीं हो सका है, परन्तु वे जन अनुश्रुतियों एवं लोककाव्यों की नायिका के रूप में आज भी हमें राष्ट्रनिर्माण व देशभक्ति की प्रेरणा प्रदान कर रही हैं। ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध उनके संघर्ष एवं बलिदान से सम्बन्धित ऐतिहासिक सामग्री समकालीन सरकारी पत्राचार, कागजातों व जिला गजेटियरों में बिखरी पड़ी है। इस ऐतिहासिक सामग्री का संकलन और ऐतिहासिक व्याख्या समय की माँग है।
पिछड़े लोधी/लोधा/लोध समुदाय में जन्मी यह वीरांगना लोधी समाज में बढ़ती हुई जागृति को प्रतीक बन गई है। पूरे भारत में लोधी समुदाय की आबादियों के बीच इनकी अनेक प्रतिमाएँ स्मारक के रूप में स्थापित हो चुकी हैं और यह कार्य निर्बाध गति से जारी है। अवन्तिबाई लोधी का इतिहास समाज में एक मिथक बन गया है।
इस शोध पत्र का उद्देश्य जन-अनुश्रुतियों एवं लोक साहित्य जन्य वातावरण से प्रेरणा प्राप्त कर लोधी के बलिदान को इतिहास के पटल पर अवतरित करना है।

अवन्तिबाई लोधी का जन्म 16 अगस्त सन् 1831 को ग्राम मनकेड़ी, जिला सिवनी के जमींदार श्री जुझार सिंह के परिवार में हुआ।1 जुझार सिंह का परिवार 187 गाँवों का जमींदार था।2 मनकेड़ी नर्मदा घाटी में एक छोटा-सा सुन्दर गाँव था। अवन्तिबाई का लालन-पालन एवं शिक्षा-दीक्षा मनकेड़ी ग्राम में ही हुई थी। बाल्यकाल में ही जुझार सिंह की इस सुन्दर कन्या ने तलवार चलाना और घुड़सवारी सीख ली थी। अवन्तिबाई बचपन से ही बड़ी वीर और साहासी थी और मनकेड़ी के जमींदार परिवार में बेटे की तरह पले होने के कारण शिकार करने का शौक भी रखती थी। अवन्तिबाई के जवान होने के साथ-साथ उसके गुणों और साहस की चर्चा समस्त नर्मदा घाटी में होने लगी।
जुझार सिंह ने अपनी बेटी के राजसी गुणों के महत्त्व को समझते हुए उसका विवाह सजातीय लोधी राजपूतों की रामगढ़ रियासत, जिला मण्डला के राजकुमार से करने का निश्चय किया। गढ़ मण्डला के पेन्शन याफ्ता गोड़ वंशी राजा शंकर शाह के हस्तक्षेप के कारण रामगढ़ के राजा लक्ष्मण सिंह ने जुझार सिंह की इस साहसी कन्या का रिश्ता अपने पुत्र राजकुमार विक्रम जीत सिंह के लिए स्वीकार कर लिया।3 सन् 1849 में शिवरात्रि के दिन अवन्तिबाई का विवाह राजकुमार विक्रम जीत सिंह के साथ हो गया और वह रामगढ़ रियासत की वधू बनी।4
अवन्तिबाई के इतिहास को आगे बढ़ाने से पहले रामगढ़ रियासत के इतिहास पर दृष्टि डालना अप्रासंगिक न होगा। रामगढ़ रियासत अपने चर्मोत्कर्ष के समय वर्तमान मध्य प्रदेश के मण्डला जिले के अन्तर्गत चार हजार वर्ग मील में फैली हुई थी, इसमें प्रताप गढ़, मुकुटपुर, रामपुर, शाहपुर, शहपुरा, निवास, रामगढ़, चौबीसा, मेहदवानी और करोतिया नामक दस परगने और 681 गाँव थे, जो सोहागपुर, अमरकंटक और चबूतरा तक फैले थे।5 इसकी स्थापना सन् 1680 ई० में गज सिंह लोधी ने की थी।6 प्रचलित किवदन्ति के अनुसार मोहन सिंह लोधी और उसके भाई मुकुट मणि ने गढ़ मण्डला राज्य में आतंक का पर्याय बन गये एक आदमखोर शेर को मार कर जनता को उसके भय से मुक्ति दिलाई थी, इस संघर्ष में मुकुट मणि भी मारे गए। गढ़ मण्डला के राजा निजाम शाह ने मोहन सिंह को इस बहादुरी से प्रसन्न होकर उसे अपना सेना पति बना लिया।7 मोहन सिंह के मृत्यु के बाद राजा ने उसके बेटे गज सिंह उर्फ गाजी सिंह को मुकुट पुर का ताल्लुका जागीर में दे दिया। गज सिंह ने गढ़ मण्डला के खिलाफ बगावत करने वाले दो गोंड भाईयों को मौत के घाट उतार दिया, इस पर राजा ने प्रसन्न होकर उसे रामगढ़ की जागीर और राजा की पदवी प्रदान की।8 कालान्तर में गज सिंह ने रामगढ़ की स्वतंत्रता की घोषणा कर पृथक राज्य की स्थापना की।
सन् 1850 में रामगढ़ रियासत के राजा लक्ष्मण सिंह की मृत्यु हो गई और राजकुमार विक्रम जीत सिंह गद्दी पर बैठे।9 राजा विक्रम जीत सिंह बहुत धार्मिक प्रवृत्ति के थे और धार्मिक कार्यों में अधिक समय देते थे। कुछ समय के उपरान्त वे अर्धविक्षिप्त हो गए, उनके दोनों पुत्र अमान सिंह और शेर सिंह अभी छोटे थे, अत: राज्य का सारा भार रानी अवन्तिबाई लोधी के कन्धों पर आ गया। रानी ने अपने विक्षिप्त पति और नाबालिग पुत्र अमान सिंह के नाम पर शासन सम्भाल लिया। इस समय भारत मे गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी का शासन था, उसकी साम्राज्यवादी नीतियों के कारण विशेषकर उसकी राज्य हड़प नीति की वजह से देशी रियासतों में हा-हाकार मचा हुआ था। इस नीति के अन्तर्गत कम्पनी सरकार अपने अधीन हर उस रियासत को ब्रिटिश साम्राज्य में विलीन कर लेती थी जिसका कोई प्राकृतिक बालिग उत्तराधिकारी नहीं होता था। इस नीति के तहत डलहौजी कानपुर, झाँसी, नागपुर, सतारा, जैतपुर, सम्बलपुर इत्यादि रियासतों को हड़प चुका था। रामगढ़ की इस राजनैतिक स्थिति का पता जब कम्पनी सरकार को लगा तो उन्होंने रामगढ़ रियासत को 13 सितम्बर 1851 ई० में कोर्ट ऑफ वार्डसके अधीन कर हस्तगत कर लिया और शासन प्रबन्ध के लिए शेख मौहम्मद नामक एक तहसीलदार को नियुक्त कर दिया, राज परिवार को पेन्शन दे दी गई।10 इस घटना से रानी बहुत दु:खी हुई, परन्तु वह अपमान का घूँट पीकर रह गई। उसने अपने राज्य को अंग्रेजों से स्वतंत्र कराने का निश्चय कर लिया। रानी उचित अवसर की तलाश करने लगी। मई 1857 में राजा विक्रम जीत सिंह का स्वर्गवास हो गया।
इस बीच 10 मई 1857 को मेरठ में देशी सैनिकों ने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत कर दी। मेरठ में सदर कोतवाली में तैनात कोतवाल धन सिंह गुर्जर के नेतृत्व में मेरठ की पुलिस, शहरी और ग्रामीण जनता ने क्रान्ति का शंखनाद कर दिया।11 अगले दिन दिल्ली में मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर को विद्रोही सैनिकों ने भारतवर्ष की क्रान्तिकारी सरकार का शासक घोषित कर दिया। मेरठ और दिल्ली की घटनाएँ सब तरफ जंगल की आग की तरह फैल गई और इन्होंने पूरे देश का आन्दोलित कर दिया।
मध्य भारत के जबलपुर मण्डला परिक्षेत्र में आने वाले तूफान के प्रथम संकेत उसके आगमन से कम से कम छ: माह पूर्व दृष्टिगोचर होने लगे थे। जनवरी 1857 से ही गाँव-गाँव में छोट-छोटी चपातियाँ रहस्मयपूर्ण तरीके से भेजी जा रही थी। ये एक संदेश का प्रतीक थी जिसमें लोगों से उन पर आने वाली आकस्मिक भयंकर घटना के लिए तैयार रहने के लिए कहा गया था। मई के प्रारम्भ से ही ऐसी कथाएँ प्रचलित थीं कि शासन के आदेश से घी, आटा तथा शक्कर में क्रमश: सुअर की चर्बी, गाय का रक्त एवं हड्डी का चूरा मिलाया गया है।12 लोग यह समझते थे कि सरकार उनका धर्म भ्रष्ट करना चाहती है।
मध्य भारत के देशी रजवाडों के शासक एवं पूर्व शासक कानपुर में नाना साहब एवं तात्या टोपे के सम्पर्क में थे,13 क्षेत्रीय किसान उनके प्रभाव में थे और देशी सैनिक उनकी तरफ नेतृत्व के लिए देख रहे थे। जबलपुर परिक्षेत्र में क्रान्ति की एक गुप्त योजना बनाई गई जिसमें देशी राजा, जमींदार और जबलपुर, सलीमानाबाद एवं पाटन में तैनात 52 वी रेजीमेन्ट के सैनिक शामिल थे। इस योजना में गढ़मण्डला के पूर्व शासक शंकर शाह, उनका पुत्र रघुनाथ शाह, रामगढ़ की रानी अवन्तिबाई लोधी, विजयराघवगढ़ के राजा सरयु प्रसाद, शाहपुर के मालगुजार ठाकुर जगत सिंह, सुकरी-बरगी के ठाकुर बहादुर सिंह लोधी एवं हीरापुर के मेहरबान सिंह लोधी एवं देवी सिंह शामिल थे।14 इनके अतिरिक्त सोहागपुर के जागीरदार गरूल सिंह, कोठी निगवानी के ताल्लुकदार बलभद्र सिंह, शहपुरा का लोधी जागीरदार विजय सिंह और मुकास का खुमान सिंह गोंड विद्रोह में शामिल थे। रीवा का शासक रघुराज सिंह भी विद्रोहियों के साथ सहानुभूति रखता था।15 वयोवृद्ध 70 वर्षीय राजा शंकर शाह को मध्य भारत में क्रान्ति का नेता चुना गया।16 रानी अवन्तिबाई ने भी इस क्रान्तिकारी संगठन को तैयार करने में बहुत उत्साह का प्रदर्शन किया। क्रान्ति का सन्देश गाँव-गाँव पहुँचाने के लिए अवन्तिबाई ने अपने हाथ से लिखा पत्र किसानों, देशी सैनिकों, जमींदारों एवं मालगुजारो को भिजवाया, जिसमें लिखा था-
देश और आन के लिए मर मिटो
या फिर चूडियाँ पहनों।
तुम्हें धर्म और ईमान की
सौगन्ध जो इस कागज
का पता दुश्मन को दो।17
सितम्बर 1857 के प्रारम्भ में ब्रिटिश शासन के पास इस बात के प्रमाण उपलब्ध थे कि कुछ सैनिकों और ठाकुरों ने कार्यवाही करने की योजना बनाई थी। योजना यह थी कि क्षेत्रीय देशी राजाओं और जमींदारों की सहायता से पर्याप्त सेना इक्कठी की जाये तथा मोहरर्म के पहले दिन छावनी पर आक्रमण किया जाये।18 पर यह योजना क्रियान्वित नहीं हो सकी। गिरधारीदास नाम के एक गद्दार ने योजना का भेद अंग्रेजों को बता दिया।19 ब्रिटिश सरकार ने एक चपरासी को फकीर के रूप में राजा शंकर शाह के पास भेजा, उसने राजा के सरल स्वभाव का लाभ उठाकर गुप्त योजना जान ली।20 लेफ्टिनेन्ट क्लार्क ने राजा शंकर शाह, उनके पुत्र रघुनाथ शाह तथा परिवार के अन्य 13 सदस्यों को बिना किसी कठिनाई के 14 सितम्बर 1857 को उनके पुरवा, जबलपुर स्थित हवेली से गिरफ्तार कर लिया।21 उनके घर से कुछ आपत्ति जनक कागजात भी प्राप्त हुए। एक कागज पाया गया जिसमें ब्रिटिश शासन को उखाड़ फैकने के लिए अराध्य देवता से प्रार्थना की गई थी।22 पिता पुत्र पर सैनिक न्यायालय ने सार्वजनिक रूप से राजद्रोह का मुकदमा चलाया और उन्हें दोषी मानते हुए उन्हें मौत की सजा सुनाई गई। 18 सितम्बर 1857 को उन्हें तोप के मुँह से बाँधकर उड़ा दिया गया।23
राजा शंकर शाह के बलिदान से पूर मध्य भारत में उत्तेजना फैल गई और जनता में विद्रोह की भावना पहले से भी तीव्र हो गई। 24 देशी सिपाहियों की 52 वीं रेजीमेन्ट ने उसी रात जबलपुर में विद्रोह कर दिया, शीघ्र ही यह विद्रोह पाटन और सलीमानाबाद छावनी में भी फैल गया। संकट की घडी में मध्य भारत के किसान और सैनिक एक कुशल और चमत्कारिक नेतृत्व की तलाश में थे। क्षेत्र के सामंत, जमींदार एवं मालगुजार भी असमंजस में थे। ऐसे में रानी अवन्तिबाई लोधी मध्य भारत की क्रान्ति के नेता के रूप में उभरी।
सर्वसाधारण जनता और समाज के अगुवा जमींदार और संभ्रान्त रानी के साहस और युद्धप्रियता से परिचित थे। विशेष रूप से रामगढ़ क्षेत्र के किसानों से रानी निकटता से जुड़ी थी और आम जनता उनसे प्रेम करती थी। क्षेत्र में क्रान्ति के प्रचार-प्रसार के लिए पूर्व में किये गये प्रयासों ने रानी अवन्तिबाई को क्रान्तिकारियों का वैकल्पिक नेता बना दिया। इस स्थिति में रानी ने अपने महत्त्व को समझते हुए स्वयं आगे बढ़कर क्रान्ति का नेतृत्व ग्रहण कर लिया। विजय राघवगढ़ के राजा सरयू प्रसाद, शाहपुर के मालगुजार ठा० जगत सिंह, सुकरी-बरगी के ठा० बहादुर सिंह लोधी एवं हीरापुर के महरबान सिंह लोधी ने भी रानी अवन्तिबाई का साथ दिया।25
सर्वप्रथम रानी ने रामगढ़ से ब्रिटिश सरकार द्वारा नियुक्त तहसीलदार को खदेड़ दिया और वहाँ की शासन व्यवस्था को अपने हाथों में ले लिया। सी०यू०विल्स अपनी पुस्तक "History of the Raj Gond Maharajas of Satpura Rangs" esa i`"B la[;k 106 ij fy[krs gSa] "when the news of Shankar Shas's execution reached the Mandla District, the Rani of Ramgarh, a subordinate Chiefship of the Raj Gond, broke into rebillion, drove the officials from Ramgarh and siezed the place in the name of her son.''26 रानी के विद्रोह की खबर जबलपुर के कमिश्नर को दी गई तो वह आबबूला हो उठा। उसने रानी को आदेश दिया कि वह मण्डला के डिप्टी कलेक्टर से भेट कर ले।27 अंग्रेज पदाधिकारियो से मिलने की बजाय रानी ने युद्ध की तैयारी शुरू कर दी। उसने रामगढ़ के किले की मरम्मत करा कर उसे और मजबूत एवं सुदृढ़ बनवाया।
मध्य भारत के विद्रोही रानी के नेतृत्व में एकजुट होने लगे अंग्रेज विद्रोह के इस चरित्र से चिंतित हो उठे। जबलपुर डिविजन के तत्कालीन कमिश्नर ने अपने अधिकारियों को घटनाओं को भेजे गए ब्योरे में लिखा है, राजा शंकर साहि की मृत्यु से क्रुद्ध एवं अपमानित लगभग 4000 विद्रोही रामगढ़ की विधवा रानी अवन्तिबाई तथा युवक राजा सरयू प्रसाद के कुशल नेतृत्व में नर्मदा नदी के उत्तरी क्षेत्र में सशस्त्र विद्रोह के लिए एकत्रित हो गए हैं।28 रानी अवन्तिबाई ने अपने साथियों के सहयोग से हमला बोल कर घुघरी, रामनगर, बिछिया इत्यादि क्षेत्रों से अंग्रेजी राज का सफाया कर दिया। इसके पश्चात् रानी ने मण्डला पर आक्रमण करने का निश्चय किया। मण्डला विजय हेतु रानी ने एक सशक्त सेना लेकर मण्डला से एक किलोमीटर पूरब में स्थित ग्राम खेरी में मोर्चा जमाया। अंग्रेजी सेना में और रानी की क्रान्तिकारी सेना में जोरदार मुठभेड़ें हुई परन्तु यह युद्ध निर्णायक सिद्ध नहीं हो सका। मण्डला के चारों ओर क्रान्तिकारियों का जमावड़ा बढ़ता जा रहा था विशेषकर मुकास के ठा० खुमान सिंह का संकट अभी बरकरार था। अत: मण्डला का डिप्टी कमिश्नर वाडिंगटन भयभीत होकर सिवनी भाग गया।29 इस घटना के उपरान्त रानी अवन्तिबाई ने दिसम्बर 1857 से फरवरी 1858 तक गढ़ मण्डला पर शासन किया।
कैप्टन वाडिंगटन लम्बे समय से मण्डला का डिप्टी कमिश्नर था। वह अपनी पराजय का बदला चुकाने के लिए कटिबद्ध था। वह अपनी खोयी हुई प्रतिष्ठा पाने के लिए आतुर था। वाडिंगटन, लेफ्टीनेन्ट बार्टन एवं लेफ्टीनेन्ट कॉकबर्न ने अपने सैनिकों के साथ मार्च 1858 के अन्त में रामगढ़ की ओर कूच किया, उनकी सेना में इररेगुलर इन्फैन्ट्री, नागपुर इन्फैन्ट्री, 52 वी नेटिव इन्फैन्ट्री के सेनिक और स्थानीय पुलिस के जवान तथा मेचलॉक मैंनथे।30 26 मार्च 1857 को इन्होने विजय राघवगढ़ पर अधिकार कर लिया। राजा सरयू प्रसाद फरार हो गए। 31 मार्च को इन्होंने घुघरी को वापस प्राप्त कर लिया। शीघ्र ही इन्होंने नारायणगंज, पाटन, सलीमानाबाद में भी क्रान्तिकारियों को परास्त कर दिया और 2 अप्रैल 1858 को रामगढ़ पहुँच गए।31 
अंग्रेजी सेना ने रामगढ़ के किले पर दो तरफ से आक्रमण किया। लेफ्टीनेन्ट बार्टन और लेफ्टीनेन्ट कॉकबर्न ने नागपुर इन्फैन्ट्री के सैनिक और कुछ पुलिस के जवानों के साथ दाहिनी ओर से आक्रमण किया। कैप्टन वाडिंगटन स्वयं 52 वी नेटिव इन्फैन्ट्री के सेनिकों और कुछ पुलिस वालों के साथ बाईं ओर से बढ़ा।32 रानी अवन्तिबाई ने अपनी सेना जिसमें उसके सेनिक और किसान शामिल थे, के साथ जमकर अंग्रेजी सेना का मुकाबला किया। परन्त अंगे्रजी सेना संख्या बल एवं युद्ध सामग्री की दृष्टि से रानी की सेना से कई गुना शक्तिशाली थी अत: स्थिति के भयंकरता को देखते हुए रानी ने किले के बाहर निकल कर देवहर गढ़ की पहाडियों में छापामार युद्ध करना उचित समझा।33 रानी के रामगढ़ छोड़ देने के बाद अंगे्रजी सेना ने अपनी खीज रामगढ़ के किले पर उतारी और किले को बुरी तरह ध्वस्त कर दिया।
देवहर गढ़ के जंगलों में रानी ने अपनी बिखरी हुई सेना को फिर से एकत्रित किया। उसे रीवा नरेश से भी सैन्य सहायता की आशा थी परन्तु उसने अंग्रेजों का साथ दिया। देवहर गढ़ के जंगलों में रानी इस सेना के जमावड़े का जब वाडिंगटन को पता चला तो उसने तब तक आगे बढ़ने का निर्णय नहीं लिया जब तक कि रीवा नरेश की सेना अंग्रेजों की मदद के लिए नहीं आ गई। रीवा की सेना पहुँचने पर 9 अप्रैल 1858 को देवहरगढ़ के जंगल में भयंकर युद्ध हुआ, 34 जिसमें अंग्रेजों ने अन्तत: रानी की सेना का चारों ओर से घेर लिया। रानी के सैकड़ों सैनिक बलिदान हो गए, क्रान्तिकारियों की संख्या घटती जा रही थी। रानी ने अपनी पूर्वजा रानी दुर्गावती का अनुसरण करते हुए, शत्रुओं द्वारा पकड़े जाने से श्रेयष्कर अपना आत्म बलिदान समझा और स्वयं अपनी तलवार अपने पेट में घोप कर शहीद हो गई।  
रानी अवन्तिबाई लोधी एक धीर, गम्भीर, विदुषी वीर, एवं साहसी शासिका थी। उसमें एक प्रशासक एवं सेनापति के श्रेष्ठ गुण थे। उनमें साहस और बहादुरी के गुण बाल्यकाल से ही दृष्टिगोचर होने लगे थे। अपने पति के अधविक्षिप्त होने एवं उसकी मृत्यु के पश्चात् संकट की घड़ी में जिस कुशलता से उसने राजकाज सम्भाला वह उनके धैर्य का परिचायक है। अपने नेतृत्व के गुणों के कारण ही वे शंकर शाह एवं रघुनाथ शाह की शहादत के पश्चात् जबलपुर परिक्षेत्र क्रान्ति की वैक्लपिक नेत्री के रूप में उभरी और उन्होंने रामगढ़ एवं मण्डला को अंग्रेजी राज से मुक्त कराकर ब्रिटिश राज को कठिन चुनौती पेश की। उन्होंने चार महीने तक मण्डला पर शासन किया, उन्होंने अन्त तक अंग्रेजों के सामने समर्पण नहीं किया। मण्डला एवं रामगढ़ हार जाने पर भी वे देवहार गढ़ के जंगलों में छापामार युद्ध करती रहीं, जब तक कि अपनी आन की रक्षा के लिए स्वयं की शहादत न दे दी।


परिशिष्ट-

रामगढ़ राज्य की वंशावली

गज सिंह (संस्थापक, 1760-1782 ई०)


भूपाल सिंह (1782-1802 ई०)


हेमराज सिंह (1802-1824 ई०)


लक्ष्मण सिंह (1824-1850 ई०)


विक्रम जीत सिंह (1850- सितम्बर 1859 ई०)


अमान सिंह (1857 के स्वतंत्रता संग्राम के समय संरक्षिका रानी अवन्तिबाई)


परिशिष्ट-

मध्य भारत के सामाजिक, धार्मिक एवं राजनैतिक जीवन का
एक आधारभूत तत्व- लोधी समुदाय।

लोध/लोधा/ लोधी राजपूत भारत के विस्तृत क्षेत्र पर आबाद हैं। इनकी आबादी मुख्य रूप से दिल्ली, उ० प्र०, म० प्र०, राजस्थान के भरतपुर एवं म० प्र० से सटे हुए जिले, गुजरात के राजकोट और अहमदाबाद जिले, महाराष्ट्र, बिहार, उड़ीसा और बंगाल के मिदनापुर जिले में है। 1931 की जनगणना के अनुसार भारत में इनकी जनसंख्या 17,42,470 थी जो कि मुख्य रूप से संयुक्त प्रान्त, मध्य प्रान्त बरार और राजपूताना  आबाद थी। विलियम क्रुक आपनी पुस्तक दी ट्राइव एण्ड कास्टस ऑफ दी नार्थ-वैस्टर्न इण्डियामें लिखते है- लोधी पूरे मध्य प्रान्त में फैले हुए हैं और ये बुंदेलखण्ड से यहाँ आये हैं। नरवर, बुंदेलखण्ड में बसने से पहले ये लुधियाना, पंजाब के निवासी थे। बहुत से विद्वान लुधियाना को लोधियों का मूल स्थान मानते हैं।
आर० वी० रसेल और हीरालाल अपनी पुस्तक दी ट्राईव एण्ड कास्टस ऑफ सेन्ट्रल प्राविन्सेज ऑफ इण्डिया’, भाग-4 में लोधी जाति के विषय में लिखते हैं कि यह एक महत्त्वपूर्ण खेतिहर जाति है जो मुख्य रूप से विन्ध्याचल पर्वत के जिलों और नर्मदा घाटी में रहती है और वहाँ ये लोग वेन गंगा नदी की घाटी और छत्तीसगढ़ की खैरागढ़ रियासत तक फैले हुए हैं। लोधी उत्तर प्रदेश से आये और सेन्ट्रल प्राविन्सेज में भूमिपति हो गए। उन्हें ठाकुर की सम्मानजनक पदवी से सम्बोधित किया जाता है और खेती करने वाली ऊँची जातियों के समकक्ष रखा जाता है। दमोह और सागर जिलों में कई लोधी भू-स्वामी  मुस्लिम शासन के समय अर्धस्वतंत्र हैसियत रखते थे और बाद में उन्होंने पन्ना के राजा को अपना अधिपति मान लिया। पन्ना के राजा ने उनके कुछ परिवारों को राजा और दीवान की पदवी प्रदान कर दी थी। इनके पास कुछ इलाका होता था और ये सैनिक भी रखते थे।
डॉ० सुरेश मिश्र अपनी पुस्तक रामगढ़ की रानी अवन्तिबाईमें पृष्ठ 11 पर लिखते हैं कि "1842 के बुन्देला विद्रोह के समय सागर नर्मदा प्रदेश में जो विद्रोह हुआ था उसमें लोधी जागीरदारों ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया था। इनमें नरसिंहपुर जिले के हीरापुर का हिरदेशाह और सागर जिले का मधुकर शाह प्रमुख थे।" ब्रिटिश सत्ता के प्रति लोधियों के विरोध की यह विरासत 1857 में और ज्यादा मुखर हुई और इसकी अगुआई रामगढ़ की रानी अवन्तिबाई ने की।
लोधी क्षत्रियों का भारतीय सभ्यता और संस्कृति के निर्माण में विशेष योगदान रहा है। मध्य और पूर्वी भारत में इस बहादुर और संघर्षशील समुदाय की घनी आबादियाँ विद्यमान है। भोगौलिक दृष्टि से यह क्षेत्र मुख्यतय विन्द्य परिसर के अन्तर्गत आता है। भारतीय समाज में विन्द्य परिसर एवं नर्मदा घाटी का बड़ा पौराणिक और ऐतिहासिक महत्त्व है, लोधी समुदाय इस पौराणिक और ऐतिहासिक परम्परा से अभिन्न रूप से जुड़ा है और इसके विकास का एक कारक है। पौराणिक रूप से विन्द्य परिसर और नर्मदा घाटी भगवान शिव से सम्बन्धित हैं और शिव भक्ति का एक केन्द्र हैं। नर्मदा नदी के उदगम स्थल, अमरकंटक को भगवान शिव का आदि निवास स्थान माना जाता है। मतस्य पुराण के अनुसार नर्मदा भगवान शिव की पुत्री है। मध्य भारत में आबाद लोध समुदाय भी मूलत: शिव भक्त है, सम्भवत: इसी कारण भगवान शिव का एक उपनाम लोधेश्वर (लोधो के ईश्वर) भी है। लोधी समुदाय की उत्पत्ति के विषय में एक दिलचस्प किवदन्ति प्रचलित है कि वे त्रिपुर के देवासुर संग्राम के समय भगवान शिव के द्वारा देवताओ की सहायता के लिए भेजे गए शिवगणों के वंशज हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि शिव उपासक लोधों की विशाल आबादी मध्य भारत में शैव सम्प्रदाय के विकास से जुड़ी है।
प्राचीन काल से ही मध्य भारत के समाज और राजनीति पर चन्द्र वंशी क्षत्रियों का वर्चस्व रहा है। इस वंश के आदि पूर्वज चन्द्र भी भगवान शिव से सम्बन्धित हैं और उनके केशों मे श्रंगार के रूप में विराजमान रहते हैं। इतिहास के कालक्रम में चन्द्र वंश की बहुत-सी शाखाएँ मध्य भारत की राजनीति पर छाई रही हैं, इनमें यदु वंश, हैहय वंश, चिदि वंश, चंदेल वंश, कलचुरी वंश एवं लोधी वंश प्रमुख हैं। विन्द्य परिसर में स्थित प्राचीन नगरी महिष्मती (वर्तमान में मण्डला), पूर्व-मध्यकाल में त्रिपुरी (तेवर, जबलपुर) एवं महोबा चन्द्रवंशीय क्षत्रियों की शक्ति के केन्द्र रहे हैं। मध्य भारत के छत्तीसगढ़ क्षेत्र में गौंड भी एक प्रमुख राजनैतिक शक्ति रहे हैं। मध्यकाल में चंदेलों, कलचुरियों, लोधियों एवं गौंडो में एक राजनैतिज्ञ तालमेल एवं सहयोग रहा है, जिसकी परिणति अनेक बार इन वंशों के शासकों के मध्य वैवाहिक सम्बन्धों में भी हुई। हम कह सकते हैं कि प्राचीन एवं पूर्व मध्य काल में लोधी समुदाय मध्य भारत में सामाजिक और राजनैतिक रूप से काफी सशक्त था।
मध्यकाल में भी लोधी समुदाय ने अपनी राजनैतिज्ञ प्रतिष्ठा को समाप्त नहीं होने दिया और हिण्डोरिया, रामगढ़, चरखारी (हमीरपुर, उ०प्र०), हीरागढ़ (नरसिंहपुर, म०प्र०), हटरी, दमोह (म०प्र०) आदि रियासतों और अद्र्ध स्वतन्त्र राज्यों की स्थापना कर मध्य भारत की राजनीति में अपना विशिष्ट स्थान बनाए रखा।
वर्तमान काल में लोधी समुदाय मुख्यत: कृषि से जुड़ा है, देश को कृषि उत्पादों में आत्मनिर्भर बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान कर रहा है। लोधी समुदाय बहुत परिश्रमी स्वभाव का है और कृषि क्षेत्र में अपनी उत्पादकता के लिए प्रसिद्ध है। इस विषय में एक देहाती कहावत है कि गुर्जर 100 बीघे, जाट 9 बीघे और लोधी 2 बीघे के किसान बराबर उत्पादन करते हैं। अपनी मेहनत और लगन से लोधी किसान भारत का खाद्य उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने में अपना योगदान कर रहे हैं।
वर्तमान काल में लोधियों में एक बार फिर राजनैतिक जागृति आ रही है और आज कुछ लोधी लोक सभा में और विधान सभाओं में पहुँच गए हैं। भाजपा के राम मन्दिर आन्दोलन में लोधी समुदाय और उनके नेताओं ने जो महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई वह किसी से छिपी नहीं है। लोधी समाज में फिर ऐसा नेतृत्व पैदा हो गया है जो समस्त समाज को दिशा प्रदान कर रहा है। लोधी वंश से कल्याण सिंह दो बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। मध्य भारत से सुश्री उमा भारती समाज को सशक्त नेतृत्व प्रदान कर रहे हैं। सुश्री उमा भारती भी मध्य प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं। अत: वह समय दूर नहीं जब लोधी समुदाय एक बार फिर मध्य भारत को राजनैतिक क्षेत्र में प्रशंसनीय योगदान करेगा।

सन्दर्भ
1.     खेम सिंह वर्मा, लोधी क्षत्रियों का वृहत इतिहास, बुलन्दशहर, 1994, पृष्ठ 96; गणेश कौशिक एवं फूल सिंह, वतन पर मिटी अवन्तिबाई, नवभारत 14-8-1994; थम्मन सिंह सरस’, अवन्तिबाई लोधी, साहित्य केन्द्र प्रकाशन, दिल्ली, 1995, पृष्ठ 46
2.    सुरेश मिश्र, रामगढ़ की रानी अवन्तिबाई, भोपाल, 2004, पृष्ठ 10
3.    थम्मन सिंह सरस’, वही, पृष्ठ 52-53
4.    वही, पृष्ठ 54
5.    वही, पृष्ठ 54
6.    वही, पृष्ठ 41
7.    हुकुम सिंह देशराजन, अमर शहीद वीरांगना रानी अवन्तिबाई, अलीगढ़, 1994
8.    सुरेश मिश्र, वही, पृष्ठ 12-13
9.    भरत मिश्र, 1857 की क्रान्ति और उसके प्रमुख क्रान्तिकारी, पृष्ठ 93
10.   वही, पृष्ठ 90, 91-93; थम्मन सिंह सरस, वही, पृष्ठ 61-64
11.   सुशील भाटी, 1857 की जनक्रान्ति के जनक धन सिंह कोतवाल, मेरठ 2002; मयराष्ट्र मानस, मेरठ; आचार्य दीपांकर, स्वाधीनता आन्दोलन और मेरठ, जनमत प्रकाशन मेरठ, 1993; Memorendom on Mutiny and outbreak in May 1857, by Major William, Commissioner of Military Police N.W. Prorinces, Allahabad, 15th Nov. 185; Meerut District Gazattier, Govt. Press, Allahabad, 1963
12.   डब्ल्यू० सी०, अस्र्कोइन, नेरेटिव ऑफ ईवेन्टस अटेन्डिंग द आउट ब्रेक और डिस्टरबेन्सज एण्ड द रेस्टोरेशन ऑफ अथारिटी इन दी सागर एण्ड नर्बदा टेरीटरीज इन 1857, कंटिका 5
13.   थम्मन सिंह सरस, वही, पृष्ठ 67-69
14.   गणेश कौशिक, वही
15.   सुरेश मिश्र, वही, पृष्ठ 15
16.   कौशिक गणेश, वही
17.   वही; हुकुम सिंह देशराजन, वही
18.   जबलपुर गजेटियर, 1972, पृष्ठ 9
19.   गणेश कौशिक, वही
20.   जबलपुर गजेटियर, पृष्ठ 94
21.   वही, पृष्ठ 95; भरत मिश्र, वही, पृष्ठ 176
22.   जबलपुर गजेटियर, पृष्ठ 95
23.   वही, पृष्ठ 95; भरत मिश्र, वही, पृष्ठ 176
24.   सुरेश मिश्र, वही, पृष्ठ 20
25.   गणेश कौशिक, वही; हुकुम सिंह देशराजन, वही
26.   वर्मा खेम सिंह, वही, पृष्ठ 98
27.   भरत मिश्र, वही, पृष्ठ 94
28.   जबलपुर पत्र व्यवहार केस की फाइल 10 और 33/1857 उद्धत खेम सिंह वर्मा, वही, पृष्ठ 98;
29.   सुरेश मिश्र, वही, पृष्ठ 28
30.   गणेश कौशिक, वही
31.   भरत मिश्र, वही, पृष्ठ 91, 94; गणेश कौशिक, वही
32.   वही
33.   वही; हुकुम सिंह देशराजन, वही; भरत मिश्र, वही पृष्ठ 94-95
34.   गणेश कौशिक, वही

                                                                                                  (Sushil Bhati, Mahipal Singh)

                                                                                           

Monday, February 18, 2013

हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना की नींव - सेनापति प्रताप राव गूजर ( Pratap Rao Gujar )


सुशील भाटी

Statue of Pratap Rao Gujar

इस ऐतिहासिक लेख का उदेशय  शिवाजी के प्रधान सेनापति (सरे नौबत) प्रताप राव गूजर का हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना में योगदान पर प्रकाश डालना है। 


मध्यकालीन भारत की बात है जब मुगल बादशाह औरंगजेब की धार्मिक असहिष्णुता की नीति के कारण भारत देश की समस्त गैर सुन्नी मुसलमान जनता विशेषकर हिन्दू जनता त्रस्त थी। औरंगजेब ने जजिया कर, इस्लामिक राज्य में रहने वाले गैर मुसलमानों से लिया जाने वाला भेदभावपूर्ण कर, फिर से हिन्दू जनता पर लगा दिया था। नए हिन्दू मन्दिरों के निर्माण और पुराने मन्दिरों की जीर्णोद्धार पर भी रोक लगा दी थी। औरंगजेब ने राजपूती राज्यों जोधपुर और मेवाड़ के अन्दरूनी मामलों में दखल देकर मुगल साम्राज्य में मिलाने का प्रयत्न किया। कश्मीर और अन्य क्षेत्रों में बलात् धर्म परिवर्तन कराकर हिन्दुओं को मुसलमान बनाया गया। इन परिस्थितियों में भारतीय जनमानस अपने आपको अपमानित, असहाय और हतोत्साहित अनुभव करने लगा। भारत की समस्त जनता, विशेषकर प्राचीन क्षत्रिय जातियो और कबीलों, जिनमें राजपूत, गूजर, जाट और अहीर प्रमुख थे, ने जगह-जगह संघर्ष प्रारम्भ कर दिये। महाराष्ट्र के मध्यकालीन सन्तों- नामदेव, ज्ञानेश्वर, तुकाराम, एकनाथ एवं समर्थ गुरू रामदास ने मराठी समाज के सामने उंच-नीच के भेदभाव रहित समाज का प्रारूप रखा, फलस्वरूप महाराष्ट्र में अभूतपूर्व सामाजिक एकता का विकास हुआ। इस पृष्ठ भूमि में मुगलों के विरूद्ध अनेक विद्रोह हुए, लेकिन भारतीयों के जिस संघर्ष ने स्वतंत्रता संग्राम का रूप धारण कर लिया, वह था शिवाजी राजे के नेतृत्व में मराठों के द्वारा स्वराज्य की स्थापना के लिये संघर्ष। स्वराज्य निर्माण वास्तव में एक राज्य निर्माण से अधिक के भारतीयों के खोये पौरूष का पुर्ननिर्माण था। स्वराज्य निर्माण के लिए संघर्ष एक प्रकार से भारतीयों के अस्तित्व और स्वाभिमान का सवाल था।

अस्मिता के इस महासंग्राम में शिवाजी के अनेक सहयोगी और साथी थे, जिनमे एक विशिस्ष्ट स्थान है उनकी अश्व सेना के प्रधान सेनापति (सरे नौबत) प्रताप राव गूजर का। प्रताप राव गूजर का, शिवाजी के उत्कर्ष और स्वराज्य स्थापना में, अति महत्वपूर्ण योगदान इसी तथ्य से स्पष्ट हो जाता है कि शिवाजी के सन् 1674 में राज्यारोहण ठीक पहले के आठ वर्ष  (चिटनिस के अनुसार 12 वर्ष) प्रताप राव गूजर ही शिवाजी के प्रधान सेनापति थे। प्रताप राव ने सरे नौबत के रूप में एक विशाल, सुव्यवस्थित और कार्यकुशल सेना का निर्माण किया। यह अश्व सेना पहाड़ी क्षेत्रो के तंग रास्तों पर दौड़ने और पलटकर तीव्रगति से शत्रु सेना पर आक्रमण करने के लिए अभ्यस्थ थी, यह पल भर में बिखरकर पहाड़ी रास्तों में गायब हो जाती थी, दूसरे ही पल अचानक प्रकट होकर शत्रु को घेर लेती थी। प्रताप राव वास्तव में एक योग्य सामरिक योजनाकार और निपुण सेनानायक था। वह मुगलों और बीजापुरी सुल्तानों के विरूद्ध अनेक महत्वपूर्ण और निर्णायक युद्ध की जीत का नायक रहा। सिंहगढ़, सल्हेरी और उमरानी के युद्ध में उसकी बहादुरी और रणकौशल देखते ही बनता था। प्रताप राव के हैरत अंगेज जंगी कारनामों की मुगल और दख्खन के दरबारों में चर्चा थी।

प्रताप राव का वास्तविक नाम कुड़तो जी गूजर था, प्रताप राव की उपाधि उसे शिवाजी ने सरेनौबत (प्रधान सेनापति) का पद प्रदान करते समय दी थी। प्रताप का अर्थ होता है- वीर। एक अन्य मत के अनुसार यह उपाधि शिवाजी ने उसे मिर्जा राजा जय सिंह के विरूद्ध युद्ध में दिखाई गई वीरता के कारण सम्मान में दी थी। प्रताप राव गूजर ने अपने सैनिक जीवन का प्रारम्भ शिवाजी की फौज में एक मामूली गुप्तचर के रूप में किया था। एक बार शिवाजी वेश बदल कर सीमा पार करने लगे, तो प्रताप राव ने उन्हें ललकार कर रोक लिया, शिवाजी ने उसकी परीक्षा लेने के लिए भांति-भांति के प्रलोभन दिये, परन्तु प्रताप राव टस से मस नहीं हुआ। शिवाजी प्रताप राव की ईमानदारी, और कर्तव्य परायणता से बेहद प्रसन्न हुए। अपने गुणों और शौर्य सेवाओं के फलस्वरूप सफलता की सीढ़ी चढ़ता गया शीघ्र ही राजगढ़ छावनी का सूबेदार बन गया।

इस बीच औरंगजेब ने जुलाई 1659 में शाइस्तां खां को मुगल साम्राज्य के दख्खन प्रान्त का सूबेदार नियुक्त किया, तब तक मराठों का मुगलों से कोई टकराव नहीं था, वे बीजापुर सल्तनत के विरूद्ध अपना सफल अभियान चला रहे थे। औरंगजेब शिवाजी के उत्कर्ष को उदयीमान मराठा राज्य के रूप में देख रहा था। उसने शाइस्ता खाँ को आदेश दिया कि वह मराठों से उन क्षेत्रों को छीन ले जो उन्होंने बीजापुर से जीते हैं। आज्ञा पाकर शाईस्ता खां ने भारी लाव-लश्कर लेकर पूना को जीत लिया और वहां शिवाजी के लिए निर्मित प्रसिद्ध लाल महल में अपना शिविर डाल दिया। उसने चक्कन का घेरा डाल कर उसे भी जीत लिया, 1661 में कल्याण और भिवाड़ी को भी उसने जीत लिया।

प्रतिक्रिया स्वरूप शिवाजी ने पेशवा मोरो पन्त और प्रताप राव को अपने प्रदेश वापस जीतने की आज्ञा दी, मोरोपन्त ने कल्याण और भिवाड़ी के अतिरिक्त जुन्नार पर भी हमला किया। रेरी बखर व चिटनिस के वर्णन के अनुसार प्रताप राव गूजर ने मुगल क्षेत्रों में एक सफल अभियान किया। वह अपनी घुड़सवार सेना के साथ मुगलों के अन्दरूनी क्षेत्रों में घुस गया। मुगलों का समर्थन करने वाले गांव, कस्बों और शहरों को बर्बाद करते हुए वह गोदावरी तट तक पहुंच गया। प्रताप राव ने बालाघाट, परांडे, हवेली, गुलबर्गा, अब्स और उदगीर को अपना निशाना बनाया और वहां से युद्ध हर्जाना वसूल किया और अन्त में वह दख्खन में मुगलों की राजधानी औरंगाबाद पर चढ़ आया। महाकूब सिंह, औरंगाबाद में औरंगजेब का संरक्षक सेनापति था। वह दस हजार सैनिकों के साथ प्रताव राव का सामना करने के लिए आगे बढ़ा। अहमदनगर के निकट दोनों सेनाओं का आमना-सामना हो गया। मुगल सेना बुरी तरह परास्त हुई। प्रताप राव ने मुगल सेनापति को युद्ध में हराकर उसका वध कर दिया। इस सैनिक अभियान से प्राप्त बेशुमार धन-दौलत लेकर प्रताप राव वापस घर लौट आया, प्रताप राव के इस सैन्य अभियान से शाइस्ता खां की मुहिम को एक बड़ा धक्का लगा। उत्साहित होकर मराठों ने अब सीधे शाईस्ता खां पर हमला करने का निर्णय लिया।

मराठे, शिवाजी के नेतृत्व, में एक छद्म बारात का आयोजन कर उसके शिविर में घुस गये और शाइस्ता खां पर हमला कर दिया। शाइस्ता खां किसी प्रकार अपनी जान बचाने में सफल रहा परन्तु इस संघर्ष में शिवाजी की तलवार के वार से उसके हाथ की तीन ऊँगली कट गयी। इस घटना के परिणाम स्वरूप एक मुगल सेना अगली सुबह सिंहगढ़ पहुंच गयी। मराठों ने मुगल सेना को सिंहगढ़ के किले के नजदीक आने का अवसर प्रदान किया। जैसे ही मुगल सेना तापों की हद में आ गयी, मराठों ने जोरदार बमबारी शुरू कर दी। उसी समय प्रताप राव अपनी घुड़सवार सेना लेकर सिंहगढ़ पहुंच गया और मुगल सेना पर भूखे सिंह के समान टूट पड़ा, पल भर में ही मराठा घुड़सवारों ने सैकड़ों मुगल सैनिक काट डाले, मुगल घुड़सवारों में भगदड़ मच गयी, प्रताप राव गूजर ने अपनी सेना लेकर उनका पीछा किया। इस प्रकार मुगल घुड़सवार सेना मराठों की घुड़सवार सेना के आगे-आगे हो ली। यह पहली बार हुआ था कि मुगलों की घुड़सवार सेना का मराठा घुड़सवार सेना ने पीछा किया हो। सिंहगढ़ की लड़ाई में प्रताप राव गूजर ने जिस बहादुरी और रणकौशल का परिचय दिया, शिवाजी उससे बहुत प्रसन्न हुए। अपनी इस शानदार सफलता से उत्साहित प्रताव राव ने मुगलों की बहुत सी छोटी सैन्य टुकड़ियों को काट डाला और मुगलों को अपनी सीमा चौकियों को मजबूत करने के लिए बाध्य कर दिया।

 शाइस्ता खां इस हार और अपमान से बहुत शर्मिन्दा हुआ। उसकी सेना का मनोबल गिर गया। उनके दिल में मराठों का भय घर कर गया, शाइस्ता खां की इस मुहिम की विफलता से मुगलों की प्रतिष्ठा मिट्टी में मिल गयी और उनका दख्खन का सूबा खतरे में पड़ गया। दख्खन में तनाव इस कदर बढ़ गया कि लगने लगा कि अब औरंगजेब स्वयं दख्खन कूच करेगा परन्तु कश्मीर और पश्चिमी प्रान्त में विद्रोह हो जाने के कारण वह ऐसा न कर सका। फिर भी उसने शाइस्ता खां को दख्खन से हटा कर उसकी जगह शहजादा मुअज्जम को दख्खन का सूबेदार बना दिया।

मराठों ने पूरी तरह मुगल विरोधी नीति अपना ली और 1664 ई० में मुगल राज्य के एक महत्वपूर्ण आर्थिक स्रोत, प्रसिद्ध बन्दरगाह और अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के केन्द्र, सूरत शहर को लूट लिया। इस तीव्रगति के आक्रमण में शिवाजी के साथ प्रताप राव गूजर और मोरो पन्त पिंगले और चार हजार मावल सैनिक थे। सूरत की लूट से मराठों को एक करोड़ रूपये प्राप्त हुए जिसके प्रयोग से मराठा राज्य को प्रशासनिक और सैनिक सुदृढ़ता प्राप्त हुई। सूरत की लूट औरंगजेब सहन नहीं कर सका। इधर मराठों ने मक्का जाते हुए हज यात्रियों के एक जहाज पर हमला कर दिया। इस घटना ने आग में घी का काम किया और औरंगजेब गुस्से से आग-बबूला हो उठा। उसने तुरन्त मिर्जा राजा जय सिंह और दिलेर खां के नेतृत्व में विशाल सेना मराठों का दमन करने के लिए भेज दी। दख्खन पहुंचते ही दिलेर खां ने पुरन्दर का घेरा डाल दिया, जय सिंह ने सिंहगढ़ को घेर लिया और अपनी कुछ टुकड़ियों को राजगढ़ और लोहागढ़ के विरूद्ध भेज दिया। जय सिंह जानता था कि मराठों को जीतना आसान नहीं है, अत: वह पूर्ण तैयारी के साथ आया था। उसके साथ 80000 चुने हुए योद्धा थे। स्थित की गम्भीरता को देखते हुए शिवाजी ने पहली बार रायगढ़ में एक युद्ध परिषद् की बैठक बुलायी। संकट के इन क्षणों में प्रताप राव गूजर ने शिवाजी का भरपूर साथ दिया था। उसने एक हद तक मुगल सेना की रसद पानी रोकने में सफलता प्राप्त की और उसने बहुत सी मुगल टुकड़ियों को पूरी तरह समाप्त कर दिया। वह लगातार मुगल सेना की हलचल की खबर शिवाजी को देता रहा। संकट की इस घड़ी में प्रताप राव के संघर्ष से प्रसन्न होकर ही शिवाजी ने उसे सरे नौबत का पद और प्रताप राव की उपाधि प्रदान किया।

 शिवाजी युद्ध की स्थिति का जायजा लेकर, इस नतीजे पर पहुंचे कि जय सिंह को आमने-सामने की लड़ाई में हराना सम्भव नहीं है। अत: उन्होंने प्रताप राव गूजर को जय सिंह का वध करने का कार्य सौंपा। एक योजना के अन्तर्गत प्रताप राव जय सिंह के साथ मिल गये और एक रात मौका पाकर उन्होंने जय सिंह को उसके शिविर में मारने का एक जोरदार प्रयास किया परन्तु अंगरक्षकों के चौकन्ना होने के कारण जय सिंह बच गया। प्रताप राव गूजर शत्रुओं के हाथ नहीं पड़ा और वह शत्रु शिविर से जान बचाकर निकलने में सफल रहा। प्रताप राव का यह दुस्साहिक प्रयास भी स्वराज्य के काम न आ सका। जय सिंह से संधि की बातचीत शुरू कर दी गयी। जिसके परिणामस्वरूप 1665 में पुरन्दर की संधि हुई। सन्धि के अन्र्तगत शिवाजी को 23 महत्वपूर्ण दुर्ग मुगलों को सौंपने पड़े। बीजापुर के कुछ क्षेत्रों पर शिवाजी का अधिकार स्वीकार कर लिया गया। शिवाजी के पुत्र संभाजी को मुगल सेना में पांच हजारी मनसब प्रदान किया गया। शिवाजी ने बीजापुर के विरूद्ध मुगलों का साथ देने का वचन दिया।

परन्तु बीजापुर के विरूद्ध मुगल-मराठा संयुक्त अभियान सफल न हो सका। इस अभियान के असफल होने से मुगल दरबार में जय सिंह की प्रतिष्ठा को गहरा आघात पहुंचा। अत: उसने औरंगजेब को अपना महत्व दर्शाने के लिए शिवाजी को उससे मिलाने के लिए आगरा भेजा। मुगल दरबार में उचित सम्मान न मिलने से शिवाजी रूष्ट हो गये और तत्काल मुगल दरबार छोड़ कर चले गये। औरंगजेब ने क्रुद्ध होकर उन्हें गिरफ्तार करा लिया। एक वर्ष तक शिवाजी आगरा में कैद रहे फिर एक दिन मुगल सैनिकों को चकमा देकर वह कैद से निकल गये और सितम्बर 1666 में रायगढ़ पहुंच गये। जब तक शिवाजी कैद में रहे स्वराज्य की रक्षा का भार पेशवा और प्रधान सेनापति प्रताप राव गूजर के जिम्मे रहा। शिवाजी की अनुपस्थिति में दोनों ने पूरी राजभक्ति और निष्ठा से स्वराज्य की रक्षा की।

आगरा से वापस आने के बाद शिवाजी तीन वर्ष तक चुप रहे। उन्होंने मुगलों से संधि कर ली। जिसके द्वारा पुरन्दर की संधि को पुन: मान्यता दे दी गयी और संभा जी को पांच हजारी मनसब प्रदान कर दिया गया। संभाजी अपने अपने पांच हजार घुड़सवारों के साथ दख्खन की मुगल राजधानी औरंगाबाद में रहने लगे। परन्तु कम उम्र होने के कारण इस सैन्य टुकड़ी का भार प्रताप राव गूजर को सौंप कर वापस चले आये। मुगल-मराठा शान्ति अधिक समय तक कायम न रह सकी। औरंगजेब को शक था कि शहजादा मुअज्जम शिवाजी से मिला हुआ है। उसने शहजादे को औरंगाबाद में मौजूदा प्रताप राव गूजर को गिरफ्तार कर उसकी सेना को नष्ट करने का हुक्म दिया। परन्तु सम्राट के हुक्म के पहुचने से पहले ही प्रताप राव गूजर अपने पांच हजार घुड़सवारों को लेकर औरंगाबाद से सुरक्षित निकल आया।

मराठों ने  मुगल प्रदेशों पर चढ़ाई कर दी। उन्होंने पुरन्दर की संधि के द्वारा मुगलों को सौंपे गये अनेक किले फिर से जीत लिये। 1670 में सिंहगढ़ और पुरन्दर सहित अनेक महत्वपूर्ण किले वापस ले लिये गये। 13 अक्टूबर 1670 को मराठों ने सूरत पर से हमला बोलकर उसे फिर लूट लिया। तीन दिन के इस अभियान में मराठों के हाथ 66 लाख रूपये लगे। वापसी में शिवाजी जब वणी-दिंडोरी के समीप पहुंचे तो उनका सामना दाऊद खान के नेतृत्व वाली मुगल सेना से हुआ। ऐसे में खजाने को बचाना एक मुश्किल काम था। शिवाजी ने अपनी सेना को चार भागों में बांट दिया। उन्होंने प्रताप राव के नेतृत्व वाली टुकड़ी को खजाने को सुरक्षित कोकण ले जाने की जिम्मेदारी सौंपी और स्वयं दाऊद खान से मुकाबले के लिए तैयार हो गये। मराठों ने इस युद्ध में मुगलों को बुरी तरह पराजित कर दिया। दूसरी और प्रताप राव खजाने को सुरक्षित निकाल ले गया।

सूरत से लौटकर प्रताव राव गूजर ने खानदेश और बरार पर हमला कर दिया। प्रताप राव ने मुगल क्षेत्र के कुंरिजा नामक नगर सहित बहुत से नगरों, कस्बों और ग्रामों को बर्बाद कर दिया। प्रताप राव गूजर के इस युद्ध अभियान का स्मरणीय तथ्य यह है कि वह रास्ते में पड़ने वाले ग्रामों के मुखियाओं से, शिवाजी को सालाना चौथनामक कर देने का लिखित वायदा लेने में सफल रहा। चौथ नामक कर मराठे शत्रु क्षेत्र की जनता को अपने हमले से होने वाली हानि से बचाने के बदले में लेते थे। इस प्रकार हम वह तारीख निश्चित कर सकते हैं जब पहली बार मराठों ने मुगल क्षेत्रों से चौथ वसूली की। यह घटना राजनैतिक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण थी। इससे महाराष्ट्र में मराठों की प्रतिष्ठा में बहुत वृद्धि हुई। यह घटना इस बात का प्रतीक थी कि महाराष्ट्र मराठों का है मुगलों का नहीं।

 अंतत: मुगल सम्राट ने गुजरात के सूबेदार बहादुर खान और दिलेर खान को दक्षिण का भार सौंपा। इन दोनों ने साल्हेर के किले का घेरा डाल दिया। और कुछ टुकड़ियों को वहीं छोड़कर दोनों ने पूना और सूपा पर धावा बोल दिया। साल्हेर का दुर्ग सामरिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण था। अत: शिवाजी इसे हर हाल में बचाने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ थे। शिवाजी सेना लेकर साल्हेर के निकट पहुंच गये। इस बात की सूचना मिलते ही दिलेर खां पूना से साल्हेर  की ओर दौड़ पड़ा और उसने शिवाजी द्वारा भेजे गये दो हजार मराठा घुड़सवारों को एक युद्ध में परास्त कर काट डाला। मराठों की स्थिति बहुत बुरी तरह बिगड़ गयी। शिवाजी ने मोरोपन्त पिंगले और प्रताप राव गूजर को बीस-बीस हजार घुड़सवारों के साथ साल्हेर पहुंचने का हुक्म दिया। मराठों की इन गतिविधियों को देखते हुए बहादुर खां ने इखलास खां के नेतृत्व में अपनी सेना के मुख्य भाग को प्रताप राव गूजर के विरूद्ध भेज दिया। युद्ध शुरू होने के कुछ समय पश्चात् ही प्रताप राव ने अपनी सेना को वापिसी का हुक्म दे दिया। मराठे तेजी के साथ पहाड़ी दर्रो और रास्तों से गायब होने लगे। उत्साही मुगल उनके पीछे भागे। पीछा करते हुए मुगल सेना बिखर गयी अब प्रताप राव ने तेजी से घूमकर मराठों को संगठित किया और दुगने वेग से हमला बोल दिया। मुगल सेना प्रताप राव के इस जंगी दांव से भौचक्की रह गयी। मुगल भ्रमित और भयभीत हो गये और उनमें भगदड़ मच गयी। इखलास खां ने मुगल सेना को फिर से संगठित करने की कोशिश की,  कुछ नई मुगल टुकड़ी भी आ गयी, घमासान युद्ध प्रारम्भ हो गया तभी मोरो पन्त भी अपनी सेना लेकर पहुंच गये। मराठों ने मुगलों को बुरी तरह घेर कर मार लगाई। मराठों ने मुगल सेना बुरी तरह रौंद डाली। कहते हैं कि मुगलों के सबसे बहादुर पांच हजार सैनिक मारे गये, जिनमं बाइस प्रमुख सेनापति थे। बहुत से प्रमुख मुगल यौद्धा घायल हुए और कुछ पकड़ लिये गये।

 साल्हेर के युद्ध में मराठों की सफलता अपने आप में एक पूर्ण विजय थी और इसका सर्वोच्च नायक था प्रताप राव गूजर। सलहेरी के युद्ध में मराठों को 125 हाथी, 700 ऊट, 6 हजार घोड़े, असंख्य पशु और बहुत सारा धन सोना, चांदी, आभूषण और युद्ध सामग्री प्राप्त हुई। साल्हेर की विजय मराठों की अब तक की सबसे बड़ी जीत थी। आमने-सामने की लड़ाई में मराठों की मुगलों के विरूद्ध यह पहली महत्वपूर्ण जीत थी। इसी जीत ने मराठा शौर्य की प्रतिष्ठा को चार चांद लगा दिया। इस युद्ध के पश्चात् दक्षिण में मराठों का खौफ बैठ गया। युद्ध का सबसे पहला असर यह हुआ कि मुगलों ने साल्हेर का घेरा उठा लिया और औरंगाबाद लौट गये।

1672 के अन्त में मराठों और बीजापुर में पुन: सम्बन्ध विच्छेद हो गये। अपने दक्षिणी क्षेत्रों की रक्षा की दृष्टि से मराठों ने पन्हाला को बीजापुर से छीन लिया। सुल्तान ने पन्हाला वापिस पाने के लिये बहलोल खान उर्फ अब्दुल करीम के नेतृत्व में एक शक्तिशाली सेना भेजी। बहलोल खान ने पन्हाला का घेरा डाल दिया। शिवाजी ने प्रताप राव गूजर को पन्हाला को मुक्त कराने के लिये भेजा। प्रताप राव गूजर ने पन्हाला को मुक्त कराने के लिये एक अद्भुत युक्ति से काम लिया। प्रताप राव गूजर ने पन्हाला कूच करने के स्थान पर आदिलशाही राजधानी बीजापुर पर जोरदार हमला बोल दिया और उसके आसपास के क्षेत्रों को बुरी तरह उजाड़ दिया। उस समय बीजापुर की रक्षा के लिए वहां कोई सेना नहीं थी अत: बहलोल खान पन्हाला का घेरा उठाकर बीजापुर की रक्षा के लिए भागा। लेकिन प्रताप राव ने उसे बीच रास्ते में उमरानी के समीप जा घेरा। बहलोल खान की सेना की रसद रोक कर प्रताप राव ने उसे अपने जाल में फंसा लिया और उसकी बहुत सी अग्रिम सैन्य टुकड़ियों का पूरी तरह सफाया कर दिया। बहलोल खान ने हार मानकर शरण मांगी। प्रताप राव ने संधि की आसान शर्तो पर उसे जाने दिया। प्रताप राव पन्हाला को मुक्त कराकर ही संतुष्ट था परन्तु शिवाजी ने शत्रु पर दिखाई गई उदारता पर अपनी नाखुशी प्रकट की। शिवाजी गलत नहीं थे, यह बहुत जल्दी ही सिद्ध हो गया। क्योंकि जैसे ही प्रतापराव बरार पर आक्रमण करने के लिये दूर निकल गया, बहलोल खान पुन: अपनी सेना को संगठित कर पन्हाला की तरफ चल दिया। प्रताप राव खबर मिलते ही वापस लौटा और नैसरी के पास दोनों का आमना-सामना हो गया। प्रताप राव के पास मात्र 1200 सैनिक थे जबकि बहलोल खान की सेना में 15000 सैनिक थे। स्थिति को भांपते हुए शेष मराठा सेना खामोश रही, परन्तु अहसान फरामोश और कायर बहलोल खान को देखकर प्रताप राव अपने आवेग पर काबू न रख सका और वह बहलोल खान पर टूट पड़ा। मात्र 6 सैनिकों ने प्रताप राव का अनुसरण किया, वे बहुत साहस और वीरता से लड़े परन्तु शत्रु की विशाल सेना के मुकाबले लड़ते हुए सात वीर क्या कर सकते थे। अंतत: वे सभी वीरगति को प्राप्त हो गये। प्रताप राव की मृत्यु का सबसे अधिक दु:ख शिवाजी को हुआ। शिवाजी ने महसूस किया कि उन्होंने अपने बहादुर और विवसनीय सेनापति को खो दिया। प्रताप राव के परिवार से सदा के लिये नाता बनाए रखने के लिए उन्होंने अपने पुत्र राजाराम का विवाह उसकी पुत्री के साथ कर दिया। 

प्रताप राव गूजर और उसके छह साथियों के बलिदान की यह घटना मराठा इतिहास की सबसे वीरतापूर्ण घटनाओं में से एक है। प्रतापराव और उसके साथियों इस दुस्साहिक बलिदान पर प्रसिद्ध कवि कुसुमग राज ने ‘वेडात मराठे वीर दौडले सात'नामक कविता लिखी है जिसे प्रसिद्ध पार्व गायिका लता मंगेश्वर ने गाया है। प्रताप राव गूजर के बलिदान स्थल नैसरी, कोल्हापुर, महाराष्ट्र में उनकी याद में एक स्मारक भी बना हुआ है।  

प्रताप राव गूजर एक योग्य, वीर, साहसी, चतुर, देशभक्त, राजभक्त, स्वामीभक्त और कर्तव्यपरायण सेनानायक था। सरेनौबत के तौर पर उसमें एक योग्य संगठनकर्ता के गुण दिखलाई पड़ते हैं। शिवाजी के मुगल कैद में रहने के समय जिस प्रकार उसने स्वराज्य को संरक्षण प्रदान किया, वह उसकी हिन्दवी स्वराज्य के प्रति गहरी निष्ठा का अनुपम उदाहरण है। एक सेनानायक के तौर पर वह अहमदनगर, सिंहगढ़, सलहेरी और उमरानी के युद्धों का नायक था। प्रताप राव के नेतृत्व में ही मराठों ने मुगल घुड़सवार सेना को सिंहगढ़ के युद्ध में परास्त कर पहली बार पीछा किया था। प्रताप राव गूजर ही वह मराठा सेनापति था जिसने 1670 में मुगल क्षेत्रों से पहली बार स्वराज्य के लिय चौथ हासिल की थी। शिवाजी के कार्यकाल की सबसे भीषण और आमने-सामने की लड़ाई में मुगलों को सलहेरी के युद्ध में बुरी तरह परास्त करने का श्रेय भी प्रताप राव गूजर को ही प्राप्त है। हिन्दी स्वराज्य की खातिर उसने अपने प्राणों की बाजी लगाकर मुगल सेनापति जय सिंह को उसी के शिविर में हमला कर मारने का प्रयास किया। प्रताप राव गूजर अपनी अंतिम सांस तक हिन्दवी स्वराज्य के लिए संघर्षरत रहा और शिवाजी के राज्याभिषेक जून 1674 से कुछ माह पूर्व 1674 में, नैसरी के युद्ध में शहीद हो गया। इतिहासकार आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव के अनुसार यह घटना 5 मार्च 1674 तथा अन्य कुछ इतिहासकारों के अनुसार 24 फरवरी 1674 की हैं| प्रताप राव गूजर जैसे  वीर, साहसी और देशभक्त बिरले ही होते हैं। वास्तव में वह उस तत्व का बना था जिससे शहीद बनते हैं। हिन्दवी स्वराज्य की राह में उसका बलिदान स्मरणीय तथ्य है।  

                                                                सन्दर्भ ग्रंथ
1-    Nilkant, S                         -        A History of the Great Maratha
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2.       Duff, Grant                      -        History of Marathas

3.       Sarkar, Jadunath             -        Shivaji

4.       Sarkar, Jadunath             -        Aurangzeb

5.       Elliot & Downson              -        Khafi Khan, History of India as
                                                          told by its own Historian Voll VII

6.       Scott, Waring                  -        History of Marathas

7.       Srivastav, Ashrivadilal       -        Bharat Ka Ithas

8.       Bhave, Prabhakar            -        Pratap Rao Gujar

9.       Divya, Agni                      -        Mahaprakrami Pratap Rao Gujar

10.     Ranadi, Mahadev Govind-           Rise of Maratha Power

                                                                                                       ( Sushil Bhati)