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Friday, December 14, 2012

छठ, छाठ और गुर्जर

डा. सुशील भाटी                            
Emperor Kanishka


सूर्य उपासना का महापर्व हैं- छठ पूजा| यह त्यौहार कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की षष्ठी को बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश मनाया जाता हैं| सूर्य पूजा का यह त्यौहार क्योकि षष्ठी को मनाया जाता हैं इसलिए लोग इसे सूर्य षष्ठी भी कहते हैं| इस दिन लोग व्रत रखते हैं और संध्या के समय तालाब, नहर या नदी के किनारे, बॉस सूप घर के बने पकवान सजा कर डूबते सूर्य भगवान को अर्ध्य देते हैं| अगले दिन सुबह उगते हुए सूर्य को अर्ध्य दिया जाता हैं|

सूर्य षष्ठी के दिन सूर्य पूजा के साथ-साथ कार्तिकेय की पत्नी षष्ठी की भी पूजा की जाती हैं| पुराणों में षष्ठी को बालको को अधिष्ठात्री देवी और बालदा कहा गया हैं|

लोक मान्यताओ के अनुसार सूर्य षष्ठी के व्रत को करने से समस्त रोग-शोक, संकट और शत्रुओ का नाश होता हैं| निः संतान को पुत्र प्राप्ति होती हैं तथा संतान की आयु बढती हैं|

सूर्य षष्ठी के दिन दक्षिण भारत में कार्तिकेय जयंती भी मनाई जाती हैं और इसे वहाँ कार्तिकेय षष्ठी अथवा स्कन्द षष्ठी कहते हैं|

सूर्य, कार्तिकेय और षष्ठी देवी की उपासनाओ की अलग-अलग परम्परों के परस्पर मिलन और सम्मिश्रण का दिन हैं कार्तिक के शुक्ल पक्ष की षष्ठी| इन परम्पराओं के मिलन और सम्मिश्रण सभवतः कुषाण काल में हुआ|

चूकि भारत मे सूर्य और कार्तिकेय की पूजा को कुषाणों ने लोकप्रिय बनाया था, इसलिए इस दिन का ऐतिहासिक सम्बन्ध कुषाणों और उनके वंशज गुर्जरों से हो सकता हैं| कुषाण और उनका नेता कनिष्क (78-101 ई.) सूर्य के उपासक थे| इतिहासकार डी. आर. भंडारकार के अनुसार कुषाणों ने ही मुल्तान स्थित पहले सूर्य मंदिर का निर्माण कराया था| भारत मे सूर्य देव की पहली मूर्तिया कुषाण काल मे निर्मित हुई हैं| पहली बार कनिष्क ने ही सूर्यदेव का मीरो मिहिर के नाम से सोने के सिक्को पर अंकन कराया था| अग्नि और सूर्य पूजा के विशेषज्ञ माने जाने वाले  इरान के मग पुरोहित कुषाणों के समय भारत आये थे| बिहार मे मान्यता हैं कि जरासंध के एक पूर्वज को कोढ़ हो गया था, तब मगो को मगध बुलाया गया| मगो ने सूर्य उपासना कर जरासंध के पूर्वज को कोढ़ से मुक्ति दिलाई, तभी से बिहार मे सूर्य उपासना आरम्भ हुई|

भारत में कार्तिकेय की पूजा को भी कुषाणों ने ही शुरू किया था और उन्होंने भारत मे अनेक कुमारस्थानो (कार्तिकेय के मंदिरों) का निर्माण कराया था| कुषाण सम्राट हुविष्क को उसके कुछ सिक्को पर महासेन 'कार्तिकेय' के रूप में चित्रित किया गया हैं| संभवतः हुविष्क को महासेन के नाम से भी जाना जाता था| मान्यताओ के अनुसार कार्तिकेय भगवान शिव और पार्वती के छोटे पुत्र हैं| उनके छह मुख हैं| वे देवताओ के सेना देवसेना के अधिपति हैं| इसी कारण उनकी पत्नी षष्ठी को देवसेना भी कहते हैं| षष्ठी देवी प्रकृति का छठा अंश मानी जाती हैं और वे सप्त मातृकाओ में प्रमुख हैं| यह देवी समस्त लोको के बच्चो की रक्षिका और आयु बढाने वाली हैं| इसलिए पुत्र प्राप्ति और उनकी लंबी आयु के लिए देवसेना की पूजा की जाती हैं|

कुषाणों की उपाधि देवपुत्र थी और वो अपने पूर्वजो को देव कहते थे और उनकी मंदिर में मूर्ति रख कर पूजा करते थे, इन मंदिरों को वो देवकुल कहते थे| एक देवकुल के भग्नावेश कुषाणों की राजधानी रही मथुरा में भी मिले हैं| अतः कुषाण देव उपासक थे| यह भी संभव हैं कि कुषाणों की सेना को देवसेना कहा जाता हो|

देवसेना की पूजा और कुषाणों की देव पूजा का संगम हमें देव-उठान के त्यौहार वाले दिन गुर्जरों के घरों में देखने को मिलता हैं| कनिंघम ने आधुनिक गुर्जरों की पहचान कुषाणों के रूप में की हैं| देव उठान त्यौहार सूर्य षष्ठी के चंद दिन बाद कार्तिक की शुक्ल पक्ष कि एकादशी को होता हैं| पूजा के लिए बनाये गए देवताओं के चित्र के सामने पुरुष सदस्यों के पैरों के निशान बना कर उनके उपस्थिति चिन्हित की जाती हैं| गुर्जरों के लिए यह पूर्वजो को पूजने और जगाने का त्यौहार हैं| गीत के अंत में कुल-गोत्र के देवताओ के नाम का जयकारा लगाया जाता हैं, जैसे- जागो रे कसानो के देव या जागो रे बैंसलो के देव| देव उठान पूजन के अवसर पर गए जाने वाले मंगल गीत में घर की माताओं और उनके पुत्रो के नाम लिए जाते है और घर में अधिक से अधिक पुत्रो के जन्मने की कामना और प्रार्थना की जाती हैं|

देवसेना और देव उठान में देव शब्द की समानता के साथ पूजा का मकसद- अधिक से अधिक पुत्रो की प्राप्ति और उनकी लंबी आयु की कामना भी समान हैं| दोनों ही त्यौहार कार्तिक के शुक्ल पक्ष में पड़ते हैं|

Last Hindu Emperor of North India - Mihir Bhoj 
गुर्जरों के साथ सूर्य षष्ठी का गहरा संबंध जान पड़ता हैं क्योकि सूर्य षष्ठी को प्रतिहार षष्ठी भी कहते हैं| प्रतिहार गुर्जरों का प्रसिद्ध ऐतिहासिक वंश रहा हैं| प्रतिहार सम्राट मिहिरभोज (836-885 ई.) के नेतृत्व मे गुर्जरों ने उत्तर भारत में अंतिम हिंदू साम्राज्य का निर्माण किया था, जिसकी राजधानी कन्नौज थी| मिहिरभोज ने बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश को जीत कर प्रतिहार साम्राज्य मे मिलाया था, सभवतः इसी कारण पश्चिमी बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुछ भाग को आज तक भोजपुर कहते हैं| सूर्य उपासक गुर्जर और उनका प्रतिहार राज घराना सूर्य वंशी माने जाते हैं| गुर्जरों ने सातवी शताब्दी मे, वर्तमान राजस्थान मे स्थित, गुर्जर देश की राजधानी भिनमाल मे जगस्वामी सूर्य मंदिर का निर्माण किया गया था| इसी काल के, भडोच के गुर्जरों शासको के, ताम्रपत्रो से पता चलता हैं कि उनका शाही निशान सूर्य था| अतः यह भी संभव हैं कि प्रतिहारो के समय मे ही बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में सूर्य उपासना के त्यौहार सूर्य षष्ठी को मनाने की परम्परा पड़ी हो और प्रतिहारो से इसके ऐतिहासिक जुड़ाव के कारण सूर्य षष्ठी को प्रतिहार षष्ठी कहते हो|

गुर्जर समाज मे छठ पूजा का त्यौहार सामान्य तौर पर नहीं होता हैं, परतु राजस्थान के गुर्जरों मे छाठ नाम का एक त्यौहार कार्तिक माह कि अमावस्या को होता हैं| इस दिन गुर्जर गोत्रवार नदी या तालाब के किनारे इक्कट्ठे होते हैं और अपने पूर्वजो को याद करते हैं| पुर्वजो का तर्पण करने के लिए वो उन्हें धूप देते हैं, घर से बने पकवान जल मे प्रवाहित कर उनका भोग लगते हैं तथा सामूहिक रूप से हाथो मे ड़ाब की रस्सी पकड़ कर सूर्य को सात बार अर्ध्य देते हैं| इस समय उनके साथ उनके नवजात शिशु भी साथ होते हैं, जिनके दीर्घायु होने की कामना की जाती हैं| हम देखते हैं कि छाठ और  छठ पूजा मे ना केवल नाम की समानता हैं बल्कि इनके रिवाज़ भी एक जैसे हैं| राजस्थान की छाठ परंपरा गुर्जरों के बीच से विलोप हो गयी छठ पूजा का अवशेष प्रतीत होती हैं|

                                       सन्दर्भ
1. भगवत शरण उपाध्याय, भारतीय संस्कृति के स्त्रोत, नई दिल्ली, 1991, 
2. रेखा चतुर्वेदी भारत में सूर्य पूजा-सरयू पार के विशेष सन्दर्भ में (लेख) जनइतिहास शोध पत्रिका, खंड-1 मेरठ, 2006
3. 0 कनिंघम आर्केलोजिकल सर्वे रिपोर्ट, 1864
4. के0 सी0 ओझा, दी हिस्ट्री आफ फारेन रूल इन ऐन्शिऐन्ट इण्डिया, इलाहाबाद, 1968  
5. डी0 आर0 भण्डारकर, फारेन एलीमेण्ट इन इण्डियन पापुलेशन (लेख), इण्डियन ऐन्टिक्वैरी खण्ड 1911
6. जे0 एम0 कैम्पबैल, भिनमाल (लेख), बोम्बे गजेटियर खण्ड 1 भाग 1, बोम्बे, 1896
7. छठ पूजा, भारत ज्ञान कोष का हिंदी महासागर, file:///C:/Documents%20and%20Settings/Dell/Desktop/Surya%20shasthi/%E0%A4%9B%E0%A4%A0%E0%A4%AA%E0%A5%82%E0%A4%9C%E0%A4%BE%20-%20%E0%A4%AD%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A4%95%E0%A5%8B%E0%A4%B6,%20%E0%A4%9C%E0%A5%8D%E0%A4%9E%E0%A4%BE%E0%A4%A8%20%E0%A4%95%E0%A4%BE%20%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%80%20%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%B0.htm
8.अनुष्ठान-सूर्यषष्ठी छठ पूजा) file:///C:/Documents%20and%20Settings/Dell/Desktop/Surya%20shasthi/Pratihar%20shasthi.htm

9.छठ के अलावा डूबते सूर्य की पूजा का कोई इतिहास नहीं मिलता, http://www.aadhiabadi.com/spirituality/festivals/391-chhat-pooja-surya-puja

10. नवरत्न कपूर, छठ पूजा और मूल स्त्रोत (लेख), दैनिक ट्रिब्यून, 14-12-12.

Monday, December 10, 2012

दी लीजेंड ऑफ झंडा ( THe Legend Of Jhanda)

डा. सुशील भाटी 
             
ब्रिटिशराज के दौरान भारत में बहुत से लोगो ने अंग्रेजी हुकूमत के अत्याचारों और शोषण के खिलाफ संघर्ष किया और अपने प्राणों तक की आहुति दे दी| इनमे से बहुत से बलिदानियो को तो इतिहास में जगह मिल गयी परन्तु कुछ के तो हम नाम भी नहीं जानते| ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध आम आदमी की लड़ाई लड़ने वाले कुछ ऐसे भी बलिदानी हैं जिन्हें भले ही इतिहास की पुस्तकों में स्थान नहीं मिला परन्तु ये जन आख्यानों और लोक गीतों के नायक बन लोगो के दिलो पर राज करते हैं| ऐसा ही एक क्रांतिकारी और बलिदानी का नाम हैं- झंडा गूजर| मेरठ जिले के बूबकपुर गांव के रहने वाले झंडा की ब्रिटिशराज और साहूकार विरोधी हथियारबंद मुहिम लगभग सौ साल तक लोक गीतों की विषय वस्तु बनी रही| आम आदमी की भाषा में इन लोक गीतों को झंडा की चौक-चांदनी कहते थे, यह अब लुप्तप्राय हैं| अब इसके कुछ अंश ही उपलब्ध हैं, जिनका उपयोग इस लेख में कई जगह किया गया हैं|  झंडा की लोकप्रियता का आलम यह था कि 1970 के दशक तक ग्रामीण इलाके में जूनियर हाई स्कूल तक के बच्चे झंडा की चौक-चांदनी घर-घर जाकर सुनाते थे और अपने अध्यापको की सहायतार्थ अनाज आदि प्राप्त करते थे| झंडा की चौक-चांदनी की शुरुआत इस प्रकार हैं-

गंग नहर के बायीं ओर बूबकपुर स्थान
जहाँ का झंडा गूजर हुआ सरनाम
झंडा का में करू बयान
सुन लीजो तुम धर के ध्यान.........

लगभग सन 1880 की बात हैं मेरठ के इलाके में झंडा नाम का एक मशहूर बागी था| उस समय अंग्रेजो का राज था और देहातो में साहूकारो ने लूट मचा रखी थी| अंग्रेजो ने किसानो पर भारी कर लगा रखे थे, जिन्हें अदा करने के लिए किसान अक्सर साहूकारो से भारी ब्याज पर कर्ज उठाने को मजबूर था| साहूकारो को अंग्रेजी पुलिस थानों, तहसीलो, और अदालतों का संरक्षण प्राप्त था, जिनके दम पर साहूकार आम आदमी और किसानो को भरपूर शोषण कर रहे थे|

झंडा की बगावत की कहानी भी ऐसी ही साहूकार के शोषण के खिलाफ शुरू होती हैं| झंडा मेरठ जिले की सरधना तहसील के बूबकपुर गांव का रहनेवाला था, यह गांव गंग नहर के बायीं तरफ हैं| वह अंग्रेजो की फौज में सिपाही था| उसके भाई ने पास के गांव दबथुवा के साहूकारो से क़र्ज़ ल रखा था| झंडा ने अपनी तनख्वाह से बहुत-सा धन चुकता कर दिया, परन्तु साहुकारी हिसाब बढ़ता ही गया| एक दिन साहूकार झंडा के घर आ धमका और उसने जमीन नीलम करने की धमकी देते हुए झंडा की भाभी से बतमीज़ी से बात की| झंडा उस समय घर पर ही था, पर वह अपमान का घूंट पीकर रह गया| लेकिन यह घटना उसके मन को कचोटती रही और वह विद्रोह की आग में जलने लगा|

कुछ ही दिन बाद गांव के पश्चिम में नहर के किनारे एक अंग्रेज शिकार खेलने के लिए आया, उसका निशाना बार- बार चूक रहा था| झंडा हँस कर कहने लगा कि मैं एक गोली में ही शिकार को गिरा दूँगा| अंग्रेज उसकी बातो में आ गया और उसने चुनोती भरे लहजे में बंदूक झंडा को थमा दी| झंडा ने एक ही गोली से शिकार को ढेर कर दिया और बंदूक अंग्रेज पर तान दी और उसे धमका कर बंदूक और घोडा दोनों लेकर चला गया|

उसके बाद झंडा ने अपना गुट बना लिया| कहते हैं की उसने अंग्रेजी शासन-सत्ता को चुनौती देकर दबथुवा के साहूकारों के घर धावा मारा| उसने पोस्टर चिपकवा कर अपने आने का समय और तारीख बताई और तयशुदा दिन वह साहूकार के घर पर चढ आया| भारी-भरकम अंग्रेजी पुलिस बल को हरा कर उसने साहूकार के धन-माल को ज़ब्त कर लिया और बही खातों में आग लगा दी| साहूकार की बेटी ने कहा की सामान में उसके भी जेवर हैं, तो झंडा ने कहा कि बहन जो तेरे हैं ईमानदारी से उठा ले|

झंडा ने आम आदमी और किसानो को राहत पहुचानें के लिए साहूकारों के खिलाफ एक मुहिम छेड दी| अंग्रेजी साम्राज्य और साहूकारों के शोषण के विरोध में हर धर्म और जाति के लोग उसके गुट में शामिल होते गए जिसने एक छोटी सी फौज का रूप ले लिया| झंडा के सहयोगी बन्दूको से लैस होकर घोडो पर चलते थे| उसके प्रमुख साथियों में बील गांव का बलवंत जाट, बूबकपुर का मोमराज कुम्हार, मथुरापुर का गोविन्द गूजर, जानी-बलैनी का एक वाल्मीकि और एक सक्का जाति का मुसलमान थे| रासना, बाडम और पथोली गांव झंडा के विशेष समर्थक थे| रासना के पास ही उसने एक कुटी में अपना गुप्त ठिकाना बना रखा था| इलाके में प्रचलित मिथकों के अनुसार झंडा ने पंजाब और राजस्थान तक धावे मारे और अंग्रेजी सत्ता को हिला कर रख दिया| झंडा की चौक-चांदनी स्थिति कुछ ऐसे बयां करती हैं-

गंग नहर के बायीं ओर
जहाँ रहता था झंडा अडीमोर
ज्यो-ज्यो  झंडा डाका डाले
अंग्रेजो की गद्दी हाले.......

ज्यो-ज्यो झंडा चाले था
अंग्रेजो का दिल हाले था.........

झंडा को आज भी किसान श्रद्धा और सम्मान से याद करते हैं| उसने मुख्य रूप से साहूकारों को निशाना बनाया, वह उनके बही खाते जला देता था| जिनके जेवर साहूकारो  ने गिरवी रख रखे थे उन्हें छीन कर वापिस कर देता था और पैसा गरीबो में बाँट देता था| वो गरीब अनाथ लड़कियों के भात भरता था| उसने अंग्रेजी पुलिस की मौजूदगी में मढीयाई गांव की दलित लड़की का भात दिया था| कहते हैं कि वो जनाने वेश में आया था, भात देकरदेकर निकल गया| अंग्रेज हाथ मलते रह गए| झंडा और साहूकारों की इस लड़ाई में वर्ग संघर्ष की प्रति छाया दिखाई देती हैं| साहूकारों के विरुद्ध झंडा कि ललकार पर चौक- चांदनी कहती हैं-

जब झंडा पर तकादा आवे
झंडा नहीं सीधा बतलावे
साहूकारों से यह कह दीना
मैं भी किसी माई का लाल
मारू बोड उदा दू खाल
हो होशियार तुम अपने घर बैठो
एक बार फिर मेरा जौहर देखो ............ 

झंडा ने मेरठ इलाके में अंग्रेजी राज को हिला कर रख दिया था| अंग्रेजी शासन ने ज़मींदारो और साहूकारों को झंडा के कहर से बचाने के लिए पूरी ताकत झोक दी| सरकार ने बूबकपुर में ही एक पुलिस चोकी खोल दी| इस स्थान पर आज प्राथमिक स्कूल हैं| लेकिन इस सब के बावजूद झंडा बेबाक होकर बूबकपुर में भूमिया पर भेली चढाने आता रहा| होली-दिवाली पर भी वह अपने गांव जरूर आता था| अंग्रेजी पुलिस और झंडा के टकराव पर चौक-चांदनी कहती हैं-

एक तरफ पुलिस का डंका
दूजी तरफ झंडा का डंका
अंग्रेज अफसर कहाँ तक जोर दिखावे
अपना सिर उस पर कटवावे...........



एक दिन रासना गांव के एक मुखबिर ने पुलिस को झंडा के रासना के जंगल स्थित कुटी में मौजूद होने की सूचना दी| पुलिस ने कुटी को चारो ओर से घेर लिया| झंडा अंग्रेजो से बड़ी बहादुरी से लड़ा| दोनों ओर से भीषण गोला-बारी हुई| गोला-बारी के शांत होने पर जब अंग्रेज कुटी में घुसे तो उन्हें वहाँ कोई नहीं मिला, झंडा वहाँ से जा चुका था| परन्तु उस घटना के बाद उसका नाम फिर कभी नहीं सुना गया| आज भी ये स्थान झंडा वाली कुटी के नाम से मशहूर हैं| यहाँ देवी माँ का एक मंदिर हैं और एक आश्रम हैं| यहाँ चैत्र के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को मेला लगता हैं, जिसमे आस-पास के गांवों के लोग आते हैं जो भी आज भी झंडा को याद करते हैं और उसकी चर्चा करते हैं|

                                                          (Dr. Sushil Bhati)